Jaunpur News: रामकथा मात्र राम की जीवन गाथा नहीं, बल्कि भक्ति, त्याग और सत्य की अनंत यात्रा है: पंकज महाराज
खानापट्टी में श्रीरामकथा का दूसरा दिन
नया सवेरा नेटवर्क
सिकरारा, जौनपुर। खानापट्टी के रामलीला मैदान में आयोजित सात दिवसीय श्रीरामकथा का दूसरा दिन श्रद्धालुओं की अपार भीड़ से सराबोर रहा। सुबह से ही मैदान में भक्तों का तांता लगा हुआ था, जहां वृंदावन से पधारे प्रवर आचार्य पंकज भाष्कर जी महाराज ने अपनी मधुर वाणी से रामकथा का रसपान कराया। मुख्य यजमान सुशील सिंह (पत्रकार) और उनकी पत्नी ज्योति सिंह (प्रधान, खानापट्टी) ने कथा का आरंभ किया, जबकि रामकथा के संरक्षक समाजसेवी दिनेश सिंह की देखरेख में विद्वान पंडित उमेश शास्त्री महाराज और उनकी टीम ने पूजा-अर्चना का संचालन किया। गांव के प्रमुख लोग जैसे बीडीसी रजनीश सिंह निर्मल, सेवानिवृत्त शिक्षक अवधेश सिंह, अनिल सिंह, चंद्रसेन सिंह, शैलेंद्र सिंह, विमल सिंह, विजय सिंह झब्बर, विश्वनाथ सिंह, शुभेंद्रू सिंह बाहुल सहित सैकड़ों ग्रामीणों ने सक्रिय योगदान दिया। मैदान में भजन-कीर्तन की धुनें गूंज रही थीं, और हवा में अगरबत्ती की सुगंध फैली हुई थी। श्रद्धालु दूर-दूर से आए थे, कुछ तो पैदल यात्रा करके, रामकथा की अमृत वर्षा में डूबने के लिए।
इस कथा को और गहराई देने के लिए, आचार्य पंकज भाष्कर जी महाराज ने दूसरे दिन की रामकथा को सती कथा से जोड़कर प्रस्तुत किया। तुलसीदास जी के रामचरितमानस में रामकथा की शुरुआत ही सती की कहानी से जुड़ी हुई है, जो भगवान शिव और पार्वती के संवाद का आधार बनती है। आचार्य जी ने बताया कि रामकथा मात्र राम की जीवन गाथा नहीं, बल्कि भक्ति, त्याग और सत्य की अनंत यात्रा है, जिसमें सती का प्रसंग राम की दिव्यता पर संदेह और उसके परिणाम को दर्शाता है।
आचार्य जी ने कथा की शुरुआत भगवान शिव और सती के वैवाहिक जीवन से की। उन्होंने वर्णन किया कि सती, जो राजा दक्ष की पुत्री थीं, ने अपने पिता के विरोध के बावजूद भगवान शिव से विवाह किया। शिव जी त्यागी और योगी थे, जबकि दक्ष राजसी ठाठ-बाट में विश्वास रखते थे। एक बार दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें सभी देवताओं को आमंत्रित किया, लेकिन शिव जी को अपमानित करने के लिए उन्हें निमंत्रण नहीं दिया।
सती को जब यह पता चला, मन में संदेह उठा। वे शिव जी से बोलीं, "हे नाथ, पिता का यज्ञ है, हमें बिना बुलाए भी जाना चाहिए।" लेकिन शिव जी ने समझाया, "सती, जहां सम्मान नहीं, वहां जाना उचित नहीं। अपमान से बचना चाहिए।" फिर भी सती का मन नहीं माना। वे पिता के घर चली गईं। वहां पहुंचकर देखा कि यज्ञ में शिव जी का कोई भाग नहीं रखा गया, और दक्ष ने शिव की निंदा की। सती का हृदय टूट गया। उन्होंने सोचा, "मैंने ऐसे पिता की संतान होकर शिव से विवाह किया, जो उनके प्रति इतना द्वेष रखते हैं।"
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आचार्य जी ने यहां श्रद्धालुओं को भावुक करते हुए कहा, "भक्तों, सती का यह संदेह ही उनके अंत का कारण बना। संदेह भक्ति का सबसे बड़ा शत्रु है।" कथा में विस्तार से बताया गया कि सती ने यज्ञ कुंड में योगाग्नि से अपने शरीर का त्याग कर दिया। पूरा मैदान स्तब्ध हो गया, जब आचार्य जी ने सती के आत्मदाह का दृश्य चित्रित किया – आग की लपटें, देवताओं का हाहाकार, और शिव जी का क्रोध।
शिव का विराग और राम की दिव्यता से जुड़ाव
सती के देहत्याग के बाद, शिव जी अत्यंत दुखी हुए। वे उनके शरीर को कंधे पर उठाकर तांडव नृत्य करने लगे, जिससे सृष्टि में प्रलय की स्थिति आ गई। तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खंडित किया, और वे खंड पृथ्वी पर विभिन्न स्थानों पर गिरे, जो आज शक्तिपीठ कहलाते हैं। शिव जी ने तब संन्यास ले लिया और हिमालय में तपस्या में लीन हो गए।
आचार्य जी ने यहां रामकथा से जोड़ा। उन्होंने बताया कि सती का पुनर्जन्म पार्वती के रूप में हुआ, जो हिमालय की पुत्री थीं। पार्वती ने शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तप किया। विवाह के बाद, एक बार पार्वती ने शिव जी से रामकथा सुनने की इच्छा जताई। लेकिन शिव जी ने पहले सती के संदेह की याद दिलाई। सती ने एक बार राम की परीक्षा ली थी – जब राम सीता की खोज में वन में भटक रहे थे, सती ने वेश बदलकर राम की परीक्षा ली, लेकिन राम ने उन्हें पहचान लिया और कहा, "तुम शिव की पत्नी सती हो।" सती ने शिव से झूठ बोला, जिससे शिव नाराज हुए और सती को त्याग दिया। यही संदेह दक्ष यज्ञ में उनके अंत का कारण बना।
शिव जी ने पार्वती से कहा, "हे पार्वती, राम भगवान विष्णु के अवतार हैं। उन पर संदेह मत करना, जैसे सती ने किया। अब मैं तुम्हें रामकथा सुनाता हूं।" इस प्रकार, सती कथा रामकथा की नींव बनती है, जो भक्ति में अटूट विश्वास की शिक्षा देती है।
आचार्य जी ने कथा को विस्तार देते हुए कहा कि सती की कहानी हमें सिखाती है कि गुरु, ईष्ट या भगवान पर संदेह न करें। संदेह से विनाश होता है, जबकि विश्वास से मोक्ष। उन्होंने रामचरितमानस के दोहों का पाठ किया:
"सतीं सोचु करि अस मन मांहीं।
पति परित्याग पापु बड़ नाहीं॥"
श्रद्धालु मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे। कथा के अंत में भजन गाया गया – "शिव शंकर को जिसने पूजा, उसका उद्धार किया..." और "राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट..."। मुख्य यजमान सुशील सिंह और ज्योति सिंह ने आचार्य जी को सम्मानित किया, जबकि दिनेश सिंह ने ग्रामीणों को धन्यवाद दिया। मैदान में प्रसाद वितरण हुआ, और श्रद्धालु तृप्त होकर लौटे, तीसरे दिन की प्रतीक्षा में।
यह कथा न केवल धार्मिक थी, बल्कि सामाजिक संदेश भी देती थी – परिवार में सम्मान, विश्वास और त्याग की महत्ता। खानापट्टी का यह आयोजन ग्रामीण एकता का प्रतीक बन गया, जहां सती की कहानी से जुड़कर रामकथा और जीवंत हो उठी।

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