अहोई अष्टमी : मातृत्व, ममता और मंगल की आराधना

नया सवेरा नेटवर्क

मां के उपवास में शक्ति है, उसके आशीर्वाद में आस्था है, अहोई का अर्घ्य न केवल तारों को, बल्कि संतान के भविष्य को आलोकित करता है। अहोई अष्टमी भारतीय नारी की आस्था, त्याग और ममता का पर्व है, जो यह बताता है कि माँ की भावना ही सृष्टि की सबसे बड़ी शक्ति है। अहोई अष्टमी केवल व्रत नहीं, माँ के प्रेम और संतानों के मंगल की सबसे सुंदर प्रार्थना है।  इस वर्ष अहोई अष्टमी का व्रत सोमवार, 13 अक्टूबर 2025 को रखा जाएगा। अष्टमी तिथि प्रारंभ : 13 अक्टूबर, रात 12ः24 बजे, अष्टमी तिथि समाप्तः 14 अक्टूबर, सुबह 11ः09 बजे, पूजन मुहूर्त : शाम 5ः53 बजे से 7ः08 बजे तक, तारों को अर्घ्य देने का समयः शाम 6ः17 बजे तक व चंद्रोदय का समयः रात 11ः20 बजे है 


सुरेश गांधी

कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाई जाने वाली अहोई अष्टमी भारतीय संस्कृति में मातृत्व, संतान-प्रेम और स्त्री-संस्कारों का प्रतीक पर्व है। यह व्रत हर वर्ष करवा चौथ के चार दिन बाद आता है। इस दिन माताएं अपनी संतान की दीर्घायु, उत्तम स्वास्थ्य और उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए निर्जला उपवास रखती हैं और संध्या को तारों के दर्शन कर अर्घ्य देकर व्रत का पारण करती हैं। अहोई अष्टमी का व्रत केवल मातृत्व की भावना का प्रतीक नहीं, बल्कि संतान-सुख और उसकी रक्षा का आध्यात्मिक संकल्प है। यह व्रत वे महिलाएं करती हैं जिनकी संतान है या जो संतान प्राप्ति की कामना रखती हैं।

 मान्यता है कि अहोई माता की कृपा से संतान के जीवन में खुशहाली, उन्नति और सुरक्षा बनी रहती है। यह व्रत विशेष रूप से उत्तर भारत में, खासकर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान और पंजाब में अत्यंत श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जाता है। अहोई अष्टमी न केवल धार्मिक दृष्टि से बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी एक स्त्री-शक्ति का पर्व है। यह व्रत नारी की आत्मिक शक्ति, तप और कर्तव्य भावना का प्रतीक है। आधुनिक युग में भी जब परिवार प्रणाली में परिवर्तन आ रहे हैं, यह पर्व भारतीय नारी की भूमिका और मातृत्व की गरिमा को पुनः स्थापित करता है। यह पर्व हमें यह सिखाता है कि भक्ति, पश्चाताप और मातृत्व की शक्ति के आगे संकट छोटे पड़ जाते हैं। अहोई अष्टमी केवल व्रत नहीं, यह माँ और संतान के अटूट प्रेम का उत्सव है।


तिथि, मुहूर्त और पूजन काल

व्रत तिथि सोमवार, 13 अक्टूबर 2025

अष्टमी प्रारंभ         रात 12ः24 बजे (13 अक्टूबर)

अष्टमी समाप्त      सुबह 11ः09 बजे (14 अक्टूबर)

पूजन मुहूर्त            शाम 5ः53 से 7ः08 बजे तक

तारों को अर्घ्य देने का समय               शाम 6ः17 बजे तक

चंद्रोदय का समय रात 11ः20 बजे

व्रत का पारण तारों के दर्शन के बाद ही करें। माता के पूजन में गंगाजल, दूध, रोली, चावल और हलवे का भोग विशेष रूप से अर्पित करें।

पूजन-विधान और परंपरा

सुबह स्नान कर महिलाएँ स्वच्छ वस्त्र धारण करती हैं और घर में गंगाजल का छिड़काव कर वातावरण पवित्र बनाती हैं। दीवार पर कुमकुम या गेरू से अहोई माता का चित्र बनाया जाता है, जिसमें अष्टकोणीय चौक, साही (स्याऊ) और उसके बच्चों की आकृति होती है। पूजन के लिए कलश पर सतिया बनाकर रखा जाता है। थाली में फूल, चावल, रोली, हलवा, फल, और रुपये का बायना रखा जाता है। पूजा के समय महिलाएँ कथा सुनती हैं और बच्चों के नाम लेकर माता से उनकी रक्षा की प्रार्थना करती हैं। कथा के बाद महिलाएँ चाँदी की अहोई स्याऊ की माला गले में पहनती हैं, जिसे दीपावली के बाद शुभ मुहूर्त में उतारकर गुड़ से भोग लगाकर पुनः रख दिया जाता है। पूजन के पश्चात चंद्र या तारों को अर्घ्य देकर व्रत का पारण किया जाता है।

व्रत में सावधानियाँ और निषेध

शास्त्रों में इस दिन कुछ कार्य वर्जित माने गए हैं, मिट्टी खोदना, सुई, कैंची या चाकू का प्रयोग नहीं करना चाहिए। किसी से विवाद या कठोर वाणी से बचें। दूध का सेवन न करें; यह नियम पुरुषों पर भी समान रूप से लागू है। दिनभर सकारात्मक मन बनाए रखें और किसी जीव-जंतु को हानि न पहुंचाएं। यदि घर के द्वार पर कोई गाय या अन्य पशु आए तो उसे गुड़-चारा देकर प्रणाम करें कृ यह शुभ माना जाता है।

तारों की आराधना का अद्भुत महत्व

सनातन में जहाँ चंद्रमा की पूजा का विशेष स्थान है, वहीं अहोई अष्टमी पर तारों का दर्शन अत्यंत पवित्र माना गया है। मान्यता है कि जब आकाश में तारे झिलमिलाने लगते हैं, तो महिलाएँ उन्हें अर्घ्य देती हैं। तारों को अर्घ्य देकर ही व्रत का समापन होता है। कहा जाता है कि इसी क्षण अहोई माता प्रसन्न होकर संतान-सुख, दीर्घायु और जीवन में मंगल का वरदान देती हैं।

पौराणिक कथा : गलती से उपजी श्रद्धा

पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार, एक साहूकार की पत्नी अपने पुत्रों के लिए मिट्टी लेने वन में गई थी। अनजाने में उसने मिट्टी खोदते समय साही (स्याऊ) के बच्चों को घायल कर दिया, जिससे वे मर गए। इस पाप से दुखी होकर उसने कठोर तप किया। तब अहोई माता प्रकट हुईं और उसे आशीर्वाद दिया कि यदि वह हर वर्ष अष्टमी के दिन उनका व्रत करेगी, तो उसकी संतानें दीर्घायु होंगी। तब से माताएँ यह व्रत करती आ रही हैं, और यह परंपरा मातृत्व की सबसे सुंदर अभिव्यक्ति बन गई।

अहोई माता : पार्वती का रूप

अहोई माता को माता पार्वती का रूप माना गया है। शास्त्र कहते हैं कि उनकी पूजा से बांझपन, गर्भपात, संतान की असमय मृत्यु जैसी समस्याएँ दूर होती हैं। यह व्रत जीवन में शुभता, परिवार में सुख-शांति और संतानों की उन्नति का आशीर्वाद देता है।

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अहोई अष्टमी के 7 प्रमुख नियम

1. मिट्टी, सुई, चाकू या कैंची का प्रयोग न करें। यह दिन साही (स्याऊ) की कथा से जुड़ा है, अतः इन वस्तुओं से कार्य वर्जित माना गया है।

2. व्रत निर्जला रखें और तारों के दर्शन के बाद ही जल ग्रहण करें।

3. किसी से विवाद न करें, किसी जीव को हानि न पहुँचाएँ।

4. दान अवश्य करें, विशेषकर पेठा, गुड़ और अनाज का।

5. स्नान के बाद कोरे वस्त्र धारण कर गंगाजल का छिड़काव करें।

6. पूजन के समय संतान का नाम लेकर माता से मंगल की कामना करें।

7. 🕉️ तारों को अर्घ्य देना अनिवार्य है। तारों का दर्शन ही व्रत की पूर्णता का प्रतीक माना गया है।

अहोई माता की कथा

एक साहूकार की पत्नी ने अनजाने में मिट्टी खोदते समय साही के बच्चों को मार दिया। इस अपराध से दुखी होकर उसने तप किया। माता पार्वती ने प्रकट होकर कहा, “यदि तुम कार्तिक कृष्ण अष्टमी को मेरा व्रत रखो और बच्चों के कल्याण की कामना करो, तो तुम्हारी संतानें सुरक्षित रहेंगी।” तभी से माताएँ अहोई अष्टमी का व्रत रखती हैं और माता अहोई (पार्वती) से संतान-सुख, दीर्घायु और समृद्धि की कामना करती हैं।

अर्थ और आध्यात्मिक भाव

अहोई अष्टमी केवल एक पारंपरिक व्रत नहीं है, बल्कि यह मातृत्व की त्याग, प्रेम और सुरक्षा की भावना का प्रतीक है। जिस तरह माँ अपने बच्चों के लिए दिनभर निर्जल रहती है, वह भारतीय समाज में मातृशक्ति की करुणा और संकल्प शक्ति का प्रतीक बन जाता है। यह पर्व हमें यह भी सिखाता है कि अनजाने में हुई त्रुटि का प्रायश्चित भी संभव है, यदि मन में सच्ची भक्ति और पश्चाताप की भावना हो।

पारिवारिक एकता का प्रतीक

इस दिन परिवार की महिलाएँ सामूहिक रूप से पूजा करती हैं। कहीं-कहीं पर सात माताएँ और अष्टमी माता की पूजा एक साथ की जाती है। बच्चों को अहोई माता की कथा सुनाई जाती है, जिससे उनमें धर्म और आस्था की जड़ें गहरी होती हैं। यह पर्व परिवार को एक सूत्र में बाँधने और संस्कारों की परंपरा को जीवित रखने का प्रतीक बन गया है।

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