Poetry: पक्ष-विपक्ष में बनी सहमति | Naya Sabera Network
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पक्ष-विपक्ष में बनी सहमति
कुछ तुम ठगो, कुछ हम ठगें
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सपन सब साकार अब,
कुछ तुम ठगो, कुछ हम ठगें
देश है लाचार अब,
कुछ तुम ठगो कुछ हम ठगें।
जाति की बगिया अनूठी,
बात की बगिया है झूठी,
बांटकर सबको निचोड़ा-
देश टूटा, आस टूटी।
अब बचा क्या तुम बताओ,
आग जन-जन में लगाओ,
हम तुम्हारी पोल खोलें-
तुम कमी मेरी गिनाओ।
डर न मेरे यार अब,
कुछ तुम ठगो कुछ हम ठगें।
क्या हमारा,क्या तुम्हारा,
इत नदी है, उत इनारा,
कौन क्या ले करके आया-
छोड़कर जाएगा सारा।
फिर कहां है श्राप इसमें,
कौन कहता पाप इसमें,
चलो मिलकर बांट खाएं-
हर कोई है बाप इसमें।
यही सच्चा सार अब,
कुछ तुम ठगो कुछ हम ठगें।
ना समझ ही लड़ रहे हैं,
हम कथानक गढ़ रहे हैं,
मोह माया जो तजे हैं -
आज आगे बढ़ रहे हैं।
तुम हमारे,हम तुम्हारे,
एक नदिया दो किनारे,
हम मिले तो समझ लेना-
बांध बन जाएंगे सारे।
बन सिपहसालार अब,
कुछ तुम ठगो कुछ हम ठगें।
बाप-बेटा, शिष्य-गुरुवर-
मौलवी - बाबा हमारे,
डाक्टर, स्कूल मालिक-
धरम पत्नी,पति को मारे।
ईद हो चाहे दिवाली,
हर कदम पर है दलाली,
मां बेचारी सिसकती है,
कर रहे बेटे जुगाली।
हैं सभी ठगहार अब,
कुछ तुम ठगो कुछ हम ठगें।
मिल करें व्यापार अब,
कुछ तुम ठगो कुछ हम ठगें।
सुरेश मिश्र।
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