वर्ण व्यवस्था का पतन

नया सवेरा नेटवर्क

       समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए वर्ण यानी रंग व्यवस्था का चलन आदिकाल में निर्मित किया गया। जिसमें रंग के आधार पर समाज का वर्गीकरण किया गया।जैसे सफेद यानी गोरा रंग ब्राह्मण लाल यानी गेहुॅंवा रंग क्षत्रिय काला रंग शूद्र और न गोरा न काला न गेहुॅंवा वो वैश्य कहा जाता या यूॅं कहें माना जाता था।गोरे गोरे में रोटी बेटी का लेन देन करते थे।उसी तरह अन्य भी करते थे।यदि गोरे काले का मेल मिलाप हो जाता था तो उसे समाज से बाहर कर दिया जाता था।जैसे कि आज भी वो भेद है।कोई ब्राह्मण किसी शूद्र या किसी शूद्र ने ही अपनी जाति से हटकर रोटी बेटी का व्यवहार करता है तो कोई उसे स्वीकार नहीं करता। आदिकाल से ही यह परम्परा आज तक यथावत चली आ रही है।सभी परम्परा  बदल गई।मगर यही यथावत बनी रही।या यूॅं कहें कि और मजबूत होती चली जा रही है।

     इस वर्ण व्यवस्था में बहुत सी विकृतियां उत्पन्न होने लगीं। समाज गलत दिशा का अनुगामी बनने लगा।जैसे जैसे लोग कथित तौर पर जागरुक होते गये समाज में विकृति पैदा करते गये।जैसा कि आज हो रहा है। लेकिन इसमें क्रांतिकारी बदलाव तब आया,जब स्वयंभू महराज मनु का मानव जाति पर नियंत्रण हुआ। उन्होंने समाज में व्याप्त हो रही कुरितियों को जड़ से उखाड़ फेंका।समाज को एक सूत्र में बांधे रखने के लिए वर्ण व्यवस्था में की बदलाव किए।रोटी बेटी का आदान प्रदान सभी वर्णों में करने का विधान बनाये। महिलाओं को स्वयंवर की आजादी दी।कद काठी और विद्वत्ता के आधार पर वर्गीकरण किया। चारों वर्णों को आर्य संस्कृति का अंग बना दिया।रंग के आधार को खत्म कर योग्यता के आधार पर समाज का निर्माण किया। ब्राह्मण का बेटा यदि योग्य नहीं है तो वह ब्राह्मण नहीं माना जायेगा।जैसे मास्टर का बेटा यदि योग्य नहीं है तो वह मास्टर नहीं कहा जाता है।वैसे ही मनु महराज ने वर्ण व्यवस्था को लागू कर सनातन को मजबूती प्रदान की।वैसी मजबूती हमारे संज्ञान में आजतक मानव जाति के लिए कोई नहीं प्रदान किया है।मनु महराज की व्यवस्था में असमाजिक तत्वों को समाज से म्लेच्छ कहके बाहर निकाल दिया जाता है।जैसा कि आज भी होता है। लेकिन तब निकाले हुए लोगों को गाॅंव या किसी भी समाज में शरण नहीं मिलती थी।मजबूरन वे लोग जंगल में शरण लेते थे।उन्हीं में से कोई दस्यु बना तो कोई महात्मा।और जब उनकी संख्या बढ़ी तो वे लोग अपना एक अलग संगठन बनाये। लूट मार छिनैती करते हुए वही लोग अपना धर्म भी अलग बना लिए।और ताकत के दम पर गाॅंवो से शहर,शहर से राज्य पर कब्जा करते हुए एक अलग रक्ष  संस्कृति का निर्माण किए।जिसे हम सभी राक्षस कहते हैं।उनके विधान जितने बने सब सनातन के विपरीत बने।आर्य संस्कृति के सभी नियमों के विपरीत उनके कार्य होने लगे।जितने भी कार्य आर्य संस्कृति में प्रतिबंधित थे, वो सब कार्य म्लेच्छ संस्कृति के अभिन्न अंग बन गये।जैसे लूट मार अपहरण हत्या बलात्कार आदि आदि। सनातनी सहृदय सहनशील मानवतावादी सहिष्णु होने के कारण सिकुड़ते गये। म्लेच्छ संस्कृति हावी होती गई।ताकत के दम पर ही म्लेच्छों ने ही धर्म व  जाति व्यवस्था का निर्माण किया। क्योंकि वे लड़ाके थे।ताकत के दम पर समाज की खूबसूरती को रौंदते चले गये।जिससे समाज जाति और धर्म में बदलते चला गया।जो शक्तिशाली होते गया वो अपने मन मुताबिक समाज गढ़ते गया।अपने हिसाब से सब विधान बनाते गया।जिससे वर्ण का पतन होकर जाति का निर्माण हो गया।जो व्यवस्था योग्यता पर थी उसे जन्म आधारित बना दिया गया।ऐसी विकृति समाज में पैदा कर दी गई कि समाज आज एक दूसरे को खाने के लिए आतुर है।

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         जाति व्यवस्था को बल प्रथम म्लेच्छों ने दिया। बाद में अंग्रेजों ने उसे और मजबूती प्रदान की।अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए धर्म परिवर्तन कराये।और भारत भूमि पर शासन करने के लिए ब्राह्मणों को बदनाम करने के लिए ऊल जलूल शास्त्रों में परिवर्तन करवायें। आर्यावर्त में ऊॅंच नीच की गहरी खाईं खोद आर्य संस्कृति और वर्ण व्यवस्था को गर्त में धकेल दिये।जिससे आर्य आपस में लड़ने लगे। आजादी के बाद तो हद ही हो गई। अंग्रेजों ने जाते समय अपने चमचों को सत्ता सौंप दी।साथ में अपने विधान भी दे दिए।इसी तरह सत्ता चलानी है।आर्यों को कभी भी एक नहीं होने देना है। आजादी के बाद तत्कालीन सत्तासीनों ने उनसे भी दस कदम आगे आकर काम किया।ऐसे ऐसे विद्वान पैदा किए, जो जितना मनु की व्यवस्था में नुक्स निकाल कर समाज तोड़ू लेख लिख सके।उसे उतना ही उत्तम पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा।जो जितना अधिकाधिक सनातन को कमजोर कर सके।उसे उतना ही बड़ा पारितोषिक मिलेगा।उसी लालच में तमाम समाज तोड़ू विद्वानों की फौज खड़ी हो गई।जो पद पैसे की लालच में समाज को जितना बन पडा़ उतना गर्त में धकेलते जा रहे हैं। कालांतर में भी जाति जनगणना कराई गई थी। म्लेच्छों द्वारा अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए।आज भी म्लेच्छ उसी सिद्धांत पर काम कर रहे हैं।

        मजे की बात यह है कि ए जितने म्लेच्छ समाज तोड़ू हैं।वो सिर्फ सनातन में ही जातिवादी जहर बो रहे हैं।किसी ने अन्य धर्मों में जाति जनगणना की बात नहीं कि।जब की अन्य में भी बहुत सी जातियां हैं। उनमें भी ऊॅंच नीच की व्यवस्था है।पर उनमें नहीं जनगणना करवा रहे।बस सनातन को तोड़कर कमजोर करने की हर जुगत लगा रहे हैं। इसलिए जाति जनगणना करवाने के लिए मरे जा रहे हैं।यह नहीं कह रहे कि जाति व्यवस्था खत्म की जाय।सब आर्य कहलायें।सब सुसंस्कृत हों।सभी की रोटी बेटी एक हो।जैसे होटलों में होती है। होटलों में  किसी के साथ कोई भेद भाव नहीं होता।वहाॅं सबकी रोटी एक होती है। योग्यता को आधार बनाया जाय।सबको योग्य बनाया जाय यह बात होनी चाहिए।मगर नहीं। म्लेच्छ संस्कृति के पोषक आर्य संस्कृति को कैसे सहन करेंगे। क्योंकि उन्हें तो अपने पूर्वजों का बदला लेना है। इसलिए एन केन प्रकारेंण आर्य संस्कृति की ऐसी-तैसी करना ही इन म्लेच्छों का परम ध्येय व मुख्य उद्देश्य है।

        हमारे आजादी के दीवाने बलिदानियों ने एक देश एक विधान एक निशान एक संस्कृति का सपना लिए खुद को निछावर कर दिया।उनका ध्येय था।सर्वे भवन्तु सुखिन:सर्वे संतु निरामया।परन्तु चमचों और दल्लों ने मारा सब तहस नहस कर दिया।अपनी सत्ता बनी रहे। अपनी पीढ़ी दर पीढ़ी सत्ता सुख भोगती रहे। इसलिए आर्य संस्कृति मतलब योग्यता को दरकिनार कर ऊॅंच नीच की खाईं को और चौड़ी करने में आज भी सिद्दत से लगे हैं। उन्हीं अंग्रेजों और मुगलों की नीतियों के अनुगामी बने हुए हैं।योग्यता को दबाकर जाति को ऊपर उठाने के चक्कर में देश को पुनः १९४७ के पहले वाला भारत बनाने पर तुले हुए हैं।

      जिसको देखो वही ब्राह्मण को गाली देने के लिए डेढ़ टांग पर खड़ा हो जाता है।जाति व्यवस्था के निर्माण में लोग ब्राह्मण को ही कसूरवार ठहराने पर तुले हुए हैं।और अधिकांशतः लोग अज्ञानता बस यही मान भी रहे हैं कि सब ब्राह्मण का ही किया धरा है। ब्राह्मण ने ही ऊॅंच नीच की खाईं को बनाया है।अब इन मूढ़ों को कौन समझाए कि ब्राह्मण सिर्फ कर्मकांड का विधान बनाया है। उसमें भी यदि देखेंगे तो पायेंगे कि जितने विधान बनाने वाले तब के ब्राह्मण थे वे सब आज के हिसाब से दलित या आदिवासी थे। क्योंकि वे सभी वन में रहते थे। इसलिए वनवासी भी कहे जाते थे। प्रमाण के तौर पर  हम सबके ईष्ट तारणहार भगवान श्रीराम जी को भी रावण अक्सर वनवासी ही कहता था।अब यदि आज के हिसाब से देखा जाय तो वनवासी ही जाति के पोषक हुए। इसमें आज का ब्राह्मण कहाॅं दोषी है।दूसरी बात कोई भी सामाजिक व्यवस्था राजा बनाता है। ब्राह्मण या साधु संत नहीं।जब राजा नियम कानून बनाता है तो ब्राह्मण दोषी कैसे। उदाहरण अब इससे अधिक क्या दूॅं।आजादी के पहले किसी भी तरह का आरक्षण नहीं था।आरक्षण किसने बनाया,सरकार ने।मूर्ख लोग कहते हैं आरक्षण बाबा साहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर जी ने दिया है।जो कि सरासर गलत है। आरक्षण तत्कालीन सरकार ने दिया था। जनहित में नहीं स्वहित में। जनहित में दिया होता तो ७०साल बीत गये।आरक्षण वाले आज भी आर्थिक रूप से वहीं खड़े हैं,जहाॅं से चले थे। बल्कि और जो समृद्ध जातियां थीं वह भी अब आरक्षण की मांग रही हैं।आरक्षण से देश का और जनता का रत्ती भर भला नहीं हुआ।उल्टे ऊॅंच नीच की खाईं और चौड़ी व गहरी हो गई।जन जन में वैमनस्यता बढ़ गई।हाॅं कुछ परिवारों का भला हुआ है।इसे देश या जनता का भला नहीं कहा जा सकता।कहने का मतलब ये कि किसी नई व्यवस्था का निर्माण जनता नहीं सरकार करती है।और मुझे तो नहीं ज्ञात है कि रावण व पुष्यमित्र शुंग के अलावा न कोई इतना प्रभावशाली ब्राह्मण राजा हुआ है जो किसी नई व्यवस्था का जन्मदाता बना हो।और इन दोनों ने किसी धर्म या जाति का निर्माण नहीं किया है।तो जाति व्यवस्था का निर्माता कैसे बना ब्राह्मण।ए सारा फंडा ब्राह्मण को बदनाम कर सत्तालोभियों ने गढ़ा है। सनातन द्रोहियों ने गढ़ा है।जिससे सनातनी बिखरे रहें।और हम सत्ता सुख भोगते रहें

     इन्हीं सत्लोभियों के चमचे कुछ कथित सनातन द्रोही व देशद्रोही विद्वान उसी तरह जातियों में झूठ परोसकर भेद  पैदा कर रहे हैं।जैसे संविधान का निर्माता बाबा साहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर जी को कहा जाता है। लोग उसे उसी तरह मान रहे हैं।जैसे अबोध बच्चे के मन में भूत का डर बैठा दिया जाता है।जब की उपरोक्त दोनों बातें सत्य से परे हैं।जैसे हमारे शास्त्रों में भूत का वर्णन नहीं है।न ही जाति का। फिर भी जन मन की भावनाओं को आहत करने के लिए इस तरह के प्रपंच रचे गये और रचे जा रहे हैं।और कुबुद्धि जीवी सफल इसलिए हो रहे हैं,कि लोग वो पढ़ रहे हैं,जो ये कुबुद्धि जीवी पढ़ा रहे हैं। लोग शास्त्र का अध्ययन छोड़ इन सत्ता लोभियों के दल्ले विद्वानों की मकड़जाल में उलझ अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं।और मानवता के साथ देश की ऐसी-तैसी कर रहे हैं। इन्हीं कुबुद्धि जीवियों की कुत्सित चाल का परिणाम है। वर्ण पतन और जाति का उदय।

पं.जमदग्निपुरी

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