Article: उच्च शिक्षा संस्थान के पास नदारत मौखिक इतिहास विभाग

Article: उच्च शिक्षा संस्थान के पास नदारत मौखिक इतिहास विभाग

–शांतिश्री धुलीपुड़ी पंडित, कुलगुरू, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय

नया सवेरा नेटवर्क

जब भारत अपनी अमृत काल की ओर सहज विश्वास के साथ बढ़ रहा है, और विकसित भारत के विचार की दिशा में कार्य कर रहा है, तो यह आवश्यक है कि हम सोचें कि भारत और भारतीय अपने अतीत को कैसे याद करते हैं और संरक्षित करते हैं। एक ऐसे देश में जहाँ लंबे समय से ज्ञान प्राप्ति और प्रसार का श्रुति (जो सुनी जाती है) और स्मृति (जो याद की जाती है) और चिंतन सफल माध्यम रहे हैं, वहां विडंबना और त्रासदी दोनों है कि हमारी उच्च शिक्षा संस्थान (HEIs) के पास कोई मौखिक इतिहास विभाग नहीं है। इस ज्ञान परंपरा को सजीव और प्रायोगिक बनाए रखने के माध्यमों को मिथ या मिथ्या कहकर नकार दिया गया। वही भूमि जहां गीतों, कथाओं, मंदिरों और शिक्षणीय विमर्शों के माध्यम से पीढ़ियों से कहानियाँ प्रसारित होती रही हैं, अब लगभग पूरी तरह से लिखित अभिलेखों पर निर्भर हो गई है, जिनमें से अधिकतर हमारी नहीं बल्कि आक्रमणकारियों और उपनिवेशकालीन पश्चिमी विद्वानों की रचनाएँ हैं। यह रोचक है कि भले ही पश्चिमी सभ्यताओं ने अपनी व्यापक मौखिक जान परंपराएँ नहीं विकसित की हैं, लेकिन उनकी विडंबना यह है कि उन्हें भी मौखिक इतिहास को अपने अध्ययन का क्षेत्र बनाना पड़ा। आधुनिक युग में उन्होंने ही इस परंपरा का नेतृत्व किया है। इस बीच हम अपनी समृद्ध मौखिक सभ्यता  के उत्तराधिकारी न बनकर स्वाभाविक रूप से आंखें फेर लिए हैं।

यह अनुपस्थिति केवल नीति में चूक ही नहीं है, बल्कि बौद्धिक उपेक्षा की एक गहरी समस्या है। यहां तक कि यह ऐतिहासिक और सभ्यतागत सफलता तथा उपलब्धियों को योजनाबद्ध तरीके से मिटाने की साजिश भी। यह असहज है लेकिन प्रासंगिक प्रश्न उठाता है: हम क्यों मानते हैं कि मौखिक साक्ष्य को औपनिवेशिक और विदेशी अभिलेखों की तुलना में कम विश्वसनीय माना जाए? जबकि हमारे संदर्भ में रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य, धर्मशास्त्र सदियों से मौखिक रूप से प्रवाहित हो रहे हैं। हमारे संस्थान, विशेषकर हमारे विश्वविद्यालय, हमारी पारंपरिक याद रखने की विधियों को कमतर, व्यक्तिगत, या गैर अकादमिक क्यों मानते रहते हैं? शायद इसका वजह यह है कि स्वतंत्रता के बाद की भारतीय इतिहासलेखन की एक निश्चित और विकृत विचारधारा की छाया में है।

 कई दशकों से भारत में इतिहास लेखन में वर्चस्व एक विशेष वर्ग के वाम-उदारवादी विद्वानों का रहा है। यह विडंबना ही है कि इन लोगों ने भारत की सभ्यतागत जड़ों को अमान्य करने का औपनिवेशिक एजेंडा आगे बढ़ाया है। धर्मनिर्पेक्षता और वस्तुनिष्ठता के नाम पर इन इतिहासकारों ने धर्मिक परंपराओं को प्रतिक्रियावादी, जातिवादी, प्रतिमान-आधारित, आधुनिकता विरोधी, और पुरूषवादी के रूप में चित्रित किया है। इन्होंने भारतीय परंपरा के सभी महिला नेताओं और विद्वानों को पूरी तरह से नजरअंदाज किया। इन लोगों ने हमारी भूमि की मौखिक परंपराओं को निरपेक्ष रूप से नज़रअंदाज किया, जबकि उपनिवेशकालीन अभिलेखों, मार्क्सवादी अवधारणाओं, और आयातित सिद्धांतों को वास्तविकता मानकर स्थापित किया। इस प्रक्रिया में, उन्होंने ज्ञान की एक सीढ़ी बनाई, जिसमें "विदेशी" को मूल "देशी" पर, "पाठ्य" को "मौखिक" पर, और "यूरोपियन" को "भारतीय" पर प्राथमिकता दी।

इसी वजह से, मौखिक इतिहास और पुरातत्व, दोनों ही क्षेत्रों को, जो भारत के अतीत को नए सिरे से समझने की क्षमता रखते हैं, जान बूझकर और लगातार हाशिए पर रखा गया है। वामपंथियों के लिए विशेषकर, मौखिक इतिहास इसलिए भी खतरनाक है, क्योंकि यह इतिहास को लोकतांत्रिक बनाने का मौका देता है। और उनके कथित अधिकार को समाप्त कर सकता है। यह उन वैकल्पिक आवाज़ों को बलशाली बनाने में सक्षम है—जो घटनाओं का अनुभव करते हुए जिए हैं, जिन्हें किताबों से नहीं बल्कि अपने अनुभव से याद है। इसलिए, यह शीर्षस्थ और शिक्षाविद् कहानियों के एकाधिकार को तोड़कर, हमारे समय की सच्चाई को उन लोगों की आवाज़ से दर्शाता है जो हमारे समाज के वनवासियों, स्वतंत्रता सेनानियों के पोते-पोतियां, और समुदाय के बुजुर्ग हैं। उनके किस्से अक्सर सरकारी स्तर पर अपनाए गए इतिहास की परिष्कृत संस्करणों को चुनौती देते हैं, जो नेहरू के समय से स्थापित हैं।

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इसलिए, हमें यह भी याद रखना चाहिए कि इसका एक नैतिक आयाम है। वाम-उदारवादी भारत के इतिहास की पुनर्प्रस्तुति अक्सर शिकायतों और झूठे आरोपों का निर्माण करने का एक उपाय बन गया है। पूरी पीढ़ियों को उनके अतीत, उनके संस्कृति, और इतिहास से घृणा करने और अपने पूर्वजों को पीड़ित या शोषक समझने के लिए शिक्षित किया गया है। यह मानते हैं कि भारत का सभ्यतागत सफर अंधकारमय रहा है, जब तक कि आक्रमणकारियों और बाद में यूरोपियों का आगमन नहीं हुआ। इसने देश और उसकी चेतना को बड़ा नुकसान पहुंचाया है। एक ऐसा राष्ट्र जो अपने अतीत को कृतज्ञता और संतुलन के साथ नहीं देख सकता, वह विश्वास के साथ भविष्य का निर्माण नहीं कर सकता। विचार केवल श्रद्धा या सफाई करने का नहीं है, बल्कि अपने पूर्वजों को सामाजिक प्रतिनिधि के रूप में, उनके दृष्टिकोण, दोष, बलिदान, और ज्ञान के साथ देखने का है। अपने इतिहास की समझ को संदर्भ, जटिलता, और सहानुभूति के साथ समेटना है। मौखिक इतिहास यह खिड़की प्रदान करता है—अतीत को मानवीकृत कर, हमें ठीक-ठीक सुनने, ठीक करने और जोड़ने का अवसर देता है। याद रखें, यह हमें सिखाता है कि स्मृति केवल घावों के बारे में नहीं बल्कि मानसिक धैर्य के बारे में भी है। इस तरह, मौखिक इतिहास केवल एक ऐतिहासिक परियोजना नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय स्वाभिमान की पुनर्स्थापना का मिशन है। यह हमें झूठी कहानियों से हटकर, अपने अतीत को फिर से बनाने और पुनर्प्रेम करने का अवसर देता है।

फिर भी, सवाल अभी भी बना रहता है: हमारे उच्च शिक्षण संस्थान में पश्चिमी दर्शनशास्त्र के विभाग तो हैं, पर मंदिर संस्कृति का क्यों नहीं? फ्रायड और "फौकॉल्ट" पढ़ाते है, पर "व्यास" और "वाल्मीकि" को क्यों नहीं पढ़ाते? क्यों एक छात्र इतिहास में स्नातक होते हुए भी कभी पुराण, महाकाव्य, या मंदिरों पर लिखे अभिलेखों का अध्ययन नहीं करता? जबकि यह उसके जीवन भर पास से गुजरते हैं। इसे बदलना संभव है, और होना चाहिए! यदि मौखिक इतिहास का विभाग, मंदिर संस्कृति और पुराण परंपराओं, आदिवासी परंपराओं के साथ, मुख्यधारा के उच्च शिक्षा संस्थानों में शामिल हो जाए, तो हम अपने अतीत या समाज और विभिन्न समुदायों के बीच संबंधों को लेकर एक क्रांतिकारी बदलाव देखेंगे। ये चीजें अतीत की वस्तुएं नहीं हैं, बल्कि वे जीवन्त परंपराएँ हैं जिनमें ज्ञान के हस्तांतरण का साझा लक्ष्य हैं। सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण, कहानी कहने का महत्व, मूल्यों पर बल, और एक अंतःविषय दृष्टिकोण जो इतिहास, समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, और अध्यात्म को संयोजित करता है इसी को मौखिक इतिहास पद्धति कहते हैं।

जबकि मंदिर संस्कृति और पुराण अध्ययन मुख्य रूप से परंपरागत या धार्मिक संस्थानों तक सीमित हैं, कोई बाधा नहीं है कि उन्हें मुख्यधारा के उच्च शिक्षण संस्थानों में लाया जाए। और वो भी वैकल्पिक या सांस्कृतिक पाठ्यक्रमों के रूप में नहीं, बल्कि कठोर अकादमिक अनुशासन के रूप में, जो भारत की बौद्धिक विविधता और गहराई को दर्शाते हों। मौखिक इतिहास विभागों का संस्थागतकरण न केवल ज्ञान के स्रोतों का विस्तार करता है बल्कि हमारी सभ्यतागत आवाज़ को भी पुनः प्राप्त करता है, जो लंबे समय से उपनिवेशी कथानकों, फिर उच्चभ्रू आदर्श और विलोपन संस्कृति के सामने डूबी हुई है। अब समय है कि "मौखिक परंपराओं" को वापस लाया जाए।

यह विशेष रूप से तब प्रासंगिक हो जाता है जब हम उस सामाजिक पुनर्जागरण की दिशा देख रहे हैं जिसकी कल्पना भारत का अमृत काल करता है। विकासशील भारत बिना स्मृति के निर्भर नहीं बन सकता। बल्कि, उसे अपने अतीत की उपलब्धियों और सदियों से चली आ रही सांस्कृतिक निरंतरता से शक्ति प्राप्त करनी होगी। तभी हम उनके कंधों पर खड़े होकर आगे देख सकते हैं और बढ़ सकते हैं। अतीत की छायाएं और शर्म आपको कहीं नहीं ले जातीं। हमें अपने गर्व के स्तंभ मजबूत करने के लिए अपने अतीत में ही निवेश करना चाहिए। हमें ऐसी संस्थागत व्यवस्था बनानी चाहिए जो मौखिक साक्ष्यों को वर्तमान में स्थापित लेखनी और पुरातात्विक साक्ष्यों के साथ सम्मानित करे। केवल स्मृति अभिलेखागार, क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों के भंडार, समुदायों के साक्षात्कार, और पीढ़ियों के बीच कहानियों के आदान-प्रदान में निवेश कर हम "जो याद है" और "जो सूचीबद्ध किया गया है" के बीच के फासले को तोड़ सकते हैं।

चलो स्पष्ट कर दें कि यह केवल पुरानी यादों का स्मरण नहीं है, बल्कि हमारे अतीत पर अधिकार पुनः प्राप्त करने का कदम है। यह सुनिश्चित करने का प्रयास है कि भारत की कथा केवल उन लोगों की नजर से न सुनाई जाए जिन्होंने इसे उपनिवेश बनाया, उससे नफ़रत की, या जो ज्ञानात्मक उपनिवेश को जारी रखना चाहते हैं, बल्कि यह भारत की गरिमा, सम्मान, और अतीत की सच्चाई के बारे में है। हमें यह भी ध्यान देना चाहिए कि मौखिक इतिहास विभागों की पुकार कोई शैक्षणिक अनुभव नहीं बननी चाहिए, बल्कि यह एक सभ्यतागत आवश्यकता है; यह सबसे ऊँचे स्तर की जिम्मेदारी है। यदि हम अपने को याद नहीं करेंगे, तो अन्य हमें परिभाषित करेंगे और हमारा इतिहास अपने तरीके से बताएंगे। यदि हम अपने गाँवों, स्वतंत्रता सेनानियों, मंदिरों के रखवालों, कारीगरों, और संतों की यादें खंगालने में असफल रहते हैं, तो फिर कोई और बताएगा कि वे कौन थे, क्या थे। उन्हें ऐसा करने देने से हम न सिर्फ अपनी कहानियों को खो देंगे, बल्कि अपनी सभ्यता की आत्मा को भी खो सकते हैं। हमें अपने अतीत का सम्मान करना चाहिए, न कि उसे नफ़रत से देखना, बल्कि सच्चाई से याद रखना। एक देश जो भूल जाता है, वह टूट जाता है। जो देश याद रखते हैं, वे जीते हैं और समर्पण और सम्मान के साथ उठ खड़े होते हैं।

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