भोजपुरी जनपद : भाषा सृजन और कला विषयक दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी | #NayaSaveraNetwork
नया सवेरा नेटवर्क
वाराणसी। संगोष्ठी कक्ष, वैदिक विज्ञान केंद्र, भोजपुरी अध्ययन केंद्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय एवं हिनुस्तान अकादमी, प्रयागराज के संयुक्त तत्वावधान में ‘भोजपुरी जनपद : भाषा सृजन और कला’ विषय पर दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है। आगत अतिथियों द्वारा विश्विद्यालय के परंपरानुसार महामना मदनमोहन मालवीय जी की प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित कर दीप प्रज्ज्वलित किया गया। खुशबू, श्रेया एवं प्रतिभा ने प्रो. शांति स्वरूप भटनागर द्वारा रचित कुलगीत ‘मधुर मनोहर अतीव सुंदर, ये सर्वविद्या की राजधानी’ की प्रस्तुति मधुर स्वर में की।
उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता कर रहे इस संगोष्ठी के संरक्षक कला संकाय प्रमुख,काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रो. माया शंकर पाण्डेय ने भौगोलिक एवं भाषिक स्तर पर सूरीनाम में गिरमिटियों के स्थिति को स्पष्ट किया। कोलोनियल फोर्सेज ने कहा कि फिजी में जाति से मुक्ति मिल जाएगी, गरीबी से मुक्ति मिल जाएगी। लेकिन स्थिति क्या हुई, नारकीय। वहां पहुंचने के बाद उन्होंने कहा कि अगर सूगर के लालच में जाओगे तो स्लेवरी तो मिलेगी ही। हर जगह मारीशस की स्वर्ग वाली स्थिति नहीं थी। फ़िजी में भोजपुरी भाषा और संस्कृति का अपना कॉन्फ्लिक्ट रहा। भोजपुरी का जो पोटेंशियल है, फ़िजी, त्रिनिनाद, साउथ अफ्रीका, मारीशस में गए गिरमिटियों के जरिए विकसित साहित्य में दिखाई पड़ेगा; वह अद्भुत है।
“दादा पुकारिला, दादा नाई बोलेला, दादा बईसेले देव घरवा।”
इन्होंने रामचंद्र माज़ी के लौंडा नाच का जिक्र किया; जो बहुत भोजपुरी नाच का पॉपुलर फॉर्म है, इसके जनक हैं माजी जी। उन्हें दुःख था कि इस नाच का फॉर्म चेंज हो चुका है। वह 95 वर्ष की अवस्था में यह डांस करते रहें। राजमोहन युवा साहित्यकार के विषय में भी इन्होंने बताया। ‘बटोहिया’ गीत को 7 देशों के 11 लोगों ने मिलकर गाया था।
“भारत के देसवा में मोरे प्रान बसे, भिनखोरे रे बटोहिया।”
इस संगोष्ठी की रूपरेखा संस्कृत के आचार्य प्रो. राजेश सरकार द्वारा रखी गई। भोजपुरी अध्ययन केंद्र के समन्वयक प्रो. प्रभाकर सिंह ने स्वागत वक्तव्य में कहा कि डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने जनपदीय चेतना की अवधारणा दी थी; जिसमें उन्होंने बताया था कि जनपदीय चेतना को बचाना भाषा को बचाना है, कला को बचाना है, संस्कृति को बचाना है। जब तक भोजपुरी जन एवं भोजपुरी संस्कृति का संस्कार न होगा तब तक भोजपुरी पल्लवित नहीं हो सकती है। यह कार्यक्रम भोजपुरी की संस्कृति को बचाने का अभियान है।
कार्यक्रम के बीच में अमित पांडेय द्वारा लिखित पुस्तक ‘भोजपुरी में रामकथा’ का लोकार्पण (मुंह दिखाई) हुआ।
सरिता बुधू की पुस्तक ‘गीत गंवनई’ जो यूनेस्को में संरक्षित है; के विषय में भी बातचीत हुई।
संगोष्ठी को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप प्रदान कर रहीं मारीशस से आईं मुख्य अतिथि प्रो.. सारिता बुधू ने कहा कि भोजपुरी हमनी के D.N.A में बाटे। आज क कार्यक्रम संतोषजनक बाटे। फ्रेंच लेखक मनले बाटे ‘जे आपन भाषा बिला देवेला ओकर प्राण छूट जा ला।’ मालवीय जी पार्लियामेंट में गिरमिटिया मजदूरन के अत्याचार के खिलाफ़ आवाज उठइले। तुलसीदास लिखले बाटे दांत के बीच जीभ बाटे, त उ समय मारिशस में जो कोलोनियल मगरमच्छ रहले उनके बीच से भोजपुरी भाषा के निकालके यूनेस्को तक पहुंचइले बाटे। भारत से खून के रिश्ता बाटे, रहन सहन के रिश्ता बाटे, संस्कार के रिश्ता बाटे। गिरमिटिया और गिथारिन लोग अपने कंठ से कोड़ा ख़ाके भी जीवित रखले उ लोग। इन्होंने घोषित किया कि सन् 2026 में हमनी के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय या गोरखपुर में अंतरराष्ट्रीय भोजपुरी दिवस मनावल जाई। मारीशस में भोजपुरी चैनल चलेला। ई भोजपुरी भाषा भी यूनेस्को में सुरक्षित बा।
पटना से पधारे विशिष्ट अतिथि, भोजपुरी कवि और लोक अध्येता प्रो. भगवती प्रसाद द्विवेदी बताते हैं कि भोजपुरी जनपद क जांघ होला लोक। ‘जे लउके ते लोक बा।’ भोजपुरी ख़ाली भाषा ना ह, माई के दूध क दूध क भाषा ह, माई के आँचल क भाषा ह। जन-जन में ई भाषा के माध्यम से सांस्कृतिक चेतना, जन चेतना पसरल बा।
“लिलरा पे चम-चम चांद त जनिहा भोजपुरिया’
‘झूठ न बखाने जाने, छूतछात न माने जाने.. होला एक पानी के मरम भोजपुरिया।’ यानि भोजपुरिया गिरगिट के तरह रंग ना बदले ला। भोजपुरी भाषा में मनई के जोड़े क प्रवृत्ति ह। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, भोजपुरी सिनेमा में भोजपुरी भाषा के प्रति ममत्व ना ह। भोजपुरी साहित्य में कहीं अश्लीलता ना देखे के मिली। भोजपुरिया अपने संस्कृति में आज भी जीवित ह।
सारस्वत अतिथि शास्त्रीय गायक और कालाविद् पद्मश्री राजेश्वर आचार्य कहते हैं कि काशिका (बोली) परवाह ना करेले। भोजपुरी में बात करे क अधिकार खाली विश्वविद्यालय के ना बा पान वाले से लेकर रिक्शे वाला तक के बा। लिटरेचर ऑफ फिलासफी है; “लोरी”। “कजरी विश्व की प्राचीनतम मीडिया है।” माई के गोदिया में भोजनालय भी ह और शौचालय भी ह। यही बदे धरती हमार माई हइन। इन्होंने भोजपुरी के काशिका बोली के शब्दों का पूरा समाजशास्त्र श्रोताओं के समक्ष रख दिया। “ कसकना ,करकना, अमरस, भ्रमरस, बतरस, अबे शब्द अब ए मिलाके बनल ह।”
“बनारस ले गमछा गयल, त गम छा गयल”
“करेजे बीच नज़रिया हमार करके ला।” जब करक के निकल जाला तब कसके ला।
“यदि काशी विश्व की सांस्कृतिक राजधानी है; तो भोजपुरी भाषा भी विश्व की सांस्कृतिक भाषा है।”
‘जब याद आई माई, भोजपुरी ही याद आई।’
“भोजपुरी जब काशिका हो जाती है, ओज गुणग्राही माधुर्य हो जाती है।”
भोजपुरी (भोज+पुरी) पूरी है अधूरी नहीं है।
मुख्य वक्ता कवि, आलोचक गुरु घासीदास विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. सदानंद शाही ने कहा कि भोजपुरी मारीशस क राजकीय भाषा बनल बा त इमे सरिता बुधू जी के द्वारा चलावल गयल आन्दोलन क बड़ा योग बा। भोजपुरी यूनियन क पहिला अध्यक्ष यही बनल बानी। केदार जी निः संकोच भोजपुरी बोलत रहलें। भोजपुरी बोलें में लोगन के संकोच होला कि लोग हमरा के गंवार कह देई। ई ऊंच नीच के भेद पर आधारित बा। भाषा के स्तर पर हैरारकी बा ई। भोजपुरी चेतना के जानले के बाद ई धारणा निकल जाई। “जन के जहां पद (पांव) पहुंचल ऊ कहाईल जनपद” हमनी के पुरखा जहां रहके भोजन कइले, रहन सहन के एक अंदाज़ विकसित कइलें ओसे जो भाषा विकसित भईल उमें कविता भईल, कहानी भईल,संस्कृति विकसित भईल एकरा से जनपदीय संस्कृति बनल, जनपदीय सभ्यता बनल। बुद्ध अइसन ऐतिहासिक व्यक्ति बाड़ें जिनके आगे एक तिहाई दुनियां सिर झुकावत बाड़े। वही बुद्ध भोजपुरी, मैथिली, मगही में जेके हीन भाषा मानल जात रहे, वही भाषा में बुद्ध ज्ञान क संदेश देत रहले, बात करत रहलें। वासुदेवशरण अग्रवाल ‘पृथ्वी पुत्र’ पुस्तक में कहले बाड़े कि लेखक के, मनुष्य के पृथ्वी पुत्र बने के चाही। जो हमार भाषा बा ओकर संबंध संस्कृति और भूमि से बा। भाषा सरस्वती क मूर्त विग्रह बा। सरस्वती प्रकट होईहन त खाली एक भाषा में न होइहन। जो भोजपुरिया लोग जहाज़ पर लादके गयल रहें उही लोग मारीशस बनउले। ओही भोजपुरिया लोग मारीशस के स्वर्ग बनउले।
विशिष्ट वक्ता हिंदुस्तान अकादमी,प्रयागराज के सचिव प्रो. देवेंद्र प्रताप सिंह बताते हैं कि भोजपुरी मेरा जीवन है। मैं भोजपुरी तत्वों को तलाश करता रहता हूं। मैं सुदूर चंदौली से आने वाला विद्यार्थी न तो हिंदी जानता था और न अंग्रेजी। जब मैथ के टीचर ने एक सवाल पूछा मैंने कहा था, ‘सर नुहू आवत’ मुझे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पहचान मुझे भोजपुरी से ही मिली; जब मैंने यह गीत गाया; “कौना करम हम कईले, किसान घर जनमली न हो।”
इस सत्र का संचालन महिला महाविद्यालय विद्यालय बीएचयू की सहायक आचार्या डॉ. उर्वशी गहलौत ने किया। इन्होंने “मईया भींगले सब लोग, गंगा जी लहरी से बहे।” भोजपुरी गीत मधुर स्वर में गाया।
धन्यवाद ज्ञापन हिंदी विभाग के सहायक आचार्य डॉ. विवेक सिंह ने किया। रिपोर्टिंग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की शोध छात्रा कु. रोशनी (धीरा) कर रहीं थी। इस अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के प्रथम सत्र का विषय था: ‘भोजपुरी जनपद : गीत, संगीत और सिने संस्कृति’ प्रथम सत्र के अध्यक्षीय उद्बोधन प्रो. में रेवती साकलकर ने कहा कि प्रखर मुखर और नाज़ुक दिल वक्तागणों का अभिनंदन है। भोजपुरी ऐसी मीठी बोली है जो कब किसी को अपना बना लेती है, पता ही नहीं चलता। इन विद्वान वक्ताओं ने गागर में सागर को समेटा है। भोजपुरी लोकगीतों की मधुरता एवं मौलिकता पर ध्यान दिए जाने की जरुरत है। भोजपुरी गीतों में वाद्यों का जो डिसबैलेंस है उस पर ध्यान देने की जरूरत है। कहन की कला संगीत से छीज़ रही है। असंतुलित संगीत, कनफोड़वा संगीत हमें मानसिक रूप से अस्थिर बनाता है।
‘भोजपुरी लोकगीतों में स्त्री’ डॉ. ज्योति सिन्हा ने कहा कि बनारस मेरा नईहर है, इस नेह के रिश्ते को तो निभाना ही था। भोजपुरी लोकगीतों में विषयवस्तु भी स्त्री है, कथा भी स्त्री है, पात्र भी स्त्री है, नायिका भी स्त्री है और गायिका भी स्त्री है। लोक में मान्यता है कि स्त्री विवाहित होकर आती है तो कहा जाता है पुत्रवती हो। सोहर पुत्रों पर अधिक है, पुत्रियों पर है तो उसमें दंश अधिक है।
पुत्र होने पर, “दुअरे से आवेले केवट लाल,
अम्मा से अरज करे हो
अम्मा धनिया के चन्नन चढ़ावा
केसरिया से नहवावा न हो
चुप रहा, चुप रहा ऐ बबुआ धीरज धरा हो
जब धनिया लड़का जनमिहे त चन्नन चढ़ाईब, केसर से नहवाईब हो।”
शर्त है कि पहले पुत्र पैदा ही तो होने दो।
एक निःसंतान स्त्री का दुःख विकट है।
‘सासु जो कहेले बझिनिया, ननद निरबंसिन हो।’ वो गंगा मां के पास जाती है।
‘ऐ गंगा मईया कोखिया के दुःख बड़ा भारी, सहल नाही जायेला हो।’
‘भोजपुरी सिने गीत का विकास’ विषय पर अपनी बात रखते हुए डॉ. सागर ने बताया कि अशोक द्विवेदी, प्रकाश उदय मेरे काव्य गुरु हैं, तो भगवती प्रसाद द्विवेदी मेरे गीत गुरु हैं। इन्होंने कैफ़ी आज़मी, मजनू सुल्तानपुरी बंदायूनी, “नैन लड़ जइहें” या तुझे ना देखूं तो चैन मुझे आता नहीं” जैसे गीत बहुत सुपरहिट हुए थे। मोती बी.ए. का गीत “मोहे ले चला हो राजा नदिया के पार’ अशोक द्विवेदी ने ‘पाती’ पत्रिका में मोती बी.ए. पे एक विशेषांक निकललें रहलन। ‘ससुरा बड़ा पईसा वाला’ से भोजपुरी सिनेमा में भसड़ भईल। भगवती प्रसाद द्विवेदी क लिखल गीत भरत सिंह गउले बाड़न।
ऊंचा खाला पड़ल बा हमरा जवानी,
केकरा से आग मांगी, केकरा से पानी। भिखारी ठाकुर क गीत गावल जात रहल।
इन्होंने अपने भी कई गीत सुनाएं, “तोहार वादा इलेक्शन के गीत लागेला, कहले पे तीत लागेला”
“ठोंक देंगे कट्टा कपार में, आइए न हमरा बिहार में।”
“ना त बंबई में काबा” जैसा विख्यात गीत इन्होंने गाया।
‘भोजपुरी सिने संस्कृति’ विषय पर डॉ. मनोज भावुक ने 1931 से लेकर 2019 तक के भोजपुरी फिल्म के इतिहास को संक्षेप में व्यक्त किया। उन्होंने बताया कि हम गांव में नच देखवा रहलीं।
“सबकर नज़रिया चोर हो जाला,
आवेला जवानी शोर हो जाला।”
‘तहरे से घर बसाईब’ सीरियल क पटकथा इ लिखलें बाड़न। अभिजीत सिंह की पुस्तक में इनके पुस्तक ‘भोजपुरी सिनेमा के संग्रह’ का लगभग 20 बार ज़िक्र किया है; दुर्भाग्य की यह पुस्तक अभी तक प्रकाशित नहीं नहीं हो पाई है। यदि लोक सिनेमा में फिट हो जाय त भोजपुरी सिनेमा समस्या क आधा समस्या दूर हो जाय। आज क भोजपुरी सिनेमा नारी विरोधी बन गयल बा। 1962 में भोजपुरी का मुकम्मल पूर्ण सिनेमा ‘गंगा किनारे मोरा गांव’
बिना जेंडर के भाषा ना होला।
‘भोजपुरी लोक गीत : गायन के विविध रूप’ को स्पष्ट करते हुए डॉ. राकेश कुमार श्रीवास्तव ने बताया कि लोक में कजरी, ठुमरी,सोहर,मांगलिक गीत, विदाई गीत कई तरह के गीत गाए जाते हैं। इन्होंने कई गीत गाकर इसे स्पष्ट किया;
मांगलिक गीत, “गाई के गोबरे से महादेव अंगना लिपाई,
सुनी ए शिव, शिव के दोहाई सुनी, ए शिव।”
जन्म संस्कार से पहले महिला प्रसव वेदना से पीड़ित होती है;
“दर्द से व्याकुल जिया मोरा हो
को दर्दों न जानें
नैहर रहतीं तो अम्मा से कहती
साजन के अम्मा कठोर हो
कोई दर्दों न जानें।«
सोहर; “सभवा बईठल राजा दशरथ
मचिया कौशल्या रानी हो
रानी कौनो परब कईलू की राम फल पईलू हो
एक तो कइलो एकादशी, अदिती के पारन हो
राजा कईले विधि से इतवार त राम फल पाईल हो।”
“ऐसी हठीली ननदिया
कंगने पे मचल गई।”
इस सत्र का संचालन हिंदी विभाग बीएचयू के डॉ. प्रभात कुमार मिश्र कर रहे थे। इन्होंने बताया कि वैदिक विज्ञान केंद्र में भोजपुरी पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन लोक और वेद के द्वंद्व को तोड़ रहा है। “तुम्हीं से मुहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई।”
प्रथम सत्र के सफलतापूर्वक सम्पन्न होने के पश्चात् ‘भोजपुरी काव्य संध्या’ का आयोजन किया गया।
भोजपुरी काव्य संध्या की अध्यक्षता कर रहें प्रो. सदानंद शाही ने कहा कि कोई भाषा अपने आपको दोहराते हुए प्रासंगिक नहीं बनी रह सकती है। इस काव्य संध्या में मैंने महसूस किया कि भोजपुरी बदल रही है। भोजपुरी लिखत-पढ़त की भाषा नहीं थी, बोलने की भाषा थी लेकिन अब भोजपुरी में गद्य के विकसित होने का समय है। बहुत सारी कविताओं में भोजपुरी गद्य की रंगत दिखलाई पड़ रही है। ग़ज़ल एक ऐसी विधा है कि इसमें कमाल पैदा करना थोड़ा मुश्किल है। लेकिन कुछ क़ाफ़िया और रदीफ़ सिख लिए तो एक बैठक में डेढ़ सौ ग़ज़ल लिखा जा सकता है। भोजपुरी के मुक्त छंद की कविताओं में भी गद्य की आवाजाही दिखलाई पड़ रही है। उन्होंने कहा कि मारीशस से पधारी सरिता बुधू मंच पर एक मूर्तिमान कविता के समान हैं। इन्होंने स्वरचित भोजपुरी कविता का पाठ किया; जो इस प्रकार है,
न साँच कबो बोलिलें
न झूठ के पजरे जाइलें
न इनसे परहेज़ बा
न इनसे गुरेज़ बा
साँच झूठ दूनों भाई
हवै हमार गोतियाँ
जब जब जइसन सोकस बइठी
दुनहूं से बतियाई लें
साँच तनिक मँहगा बाड़ै
झूठ बाड़ै सहता
हार थक उनहीं से डबल रोल कराईलें
न साँच कबो बोलिलें
न झूठ के पजरे जाईलें।
काव्यपाठ में देश-विदेश के प्रमुख विख्यात कावियों ने शिरकत की।
पटना के भगवती प्रसाद द्विवेदी ने
“चाह बहुत बा, राहै नईखे
कतनो पंवरी थाहै नईखै
कुम्हलाईल सिरजन के बिरवा
लहलहल पतई काहें नईखे…
उनका अन्न पर विकरम राजा
दुखिया के परवाहे नईखे
ग़ज़ल सुनाया।
नालंदा के रवींद्रनाथ श्रीवास्तव उर्फ परिचयदास ने ‘सुघराई के छाया।’ और ‘हम उठब’ कविता का पाठ किया।
“ ईमानदारी सुघ्घर है
करुणा सुघ्घर हवै
बुद्ध क उजियार सुघ्घर हवै
प्रतिभा क गहना सुघ्घर हवै
सुघ्घर हवै उ छंद जिनमें
जियरा के आनंद आवै।”
कोलकाता के मृत्युंजय कुमार सिंह ने विरहगीत, “ तोहरी सुरतिया आवै, अंखियां में रह-रह,
बदरा से जईसे झाँके मोर चंदा रह-रह।
देहवा त बचल बाटै, तोहरा के गह-गह।”
वाराणसी के प्रसिद्ध भोजपुरी लोक कवि प्रकाश उदय ने एक गीत सुनाया ‘सब अनेत के ठीका कईसे रउरे लेहब,
हमऊं कबहूं ज्वारमुखी पर भंटा सेकब।”
“सास न ननद, घरे अपने अनंद
पुआ गटकी आ न त गटकी,
ना त पानी के दिन कपार के
ठोकी जब अटकी।”
वाराणसी से शिवकुमार पराग ने कहा कि महामना मालवीय जी के बगिया में भोजपुरी क बिरवा लगवलें बाड़े सदानंद शाही जी त हमनी के आज उ वृक्ष के छाया तलें भींजत बानी।
“नून तेल लकरी में अस जीनगी अझुराइल बा, …नाक बेचके नथूनी किनल जात बा खुशी खुशी,
इहे विकास के हालत बा, मति मराईल बा अब।”
नई दिल्ली से मनोज भावुक ने एक बहुत बेहतरीन ग़ज़ल सुनाया;
“उ नामी आदमी के साजिशन बदनाम कईलन सब,
इहै तिकड़न के सालै खूब चर्चा में अईलन सब,
दिया हम नेह क लेके सफ़र में बढ़ रहल बानी,
नफ़रत के भयंकर आड़ में जर-जर बुतईलन सब,
केहू के खींचके टंगरी, आपन कद बढ़इलन सब….
जोगाड़ू फूल, माला मंच बैनर जय हो जय हो जय,
बिना कुछ करने-धरने के फलाने जी कहइलन सब।
वाराणसी की प्रीति विश्वकर्मा ने “देखली एक नार सुंदर, गड़िया चलावत हो,
बईठल ड्राइवर एक सीट पर, गड़िया चलावे धुआंधार हो।”
रामबचन यादव ने हास्य व्यंग्य कविता “जब से राजा बनल भकचोनहरा, कउवा से दीवान बन गयल”
वाराणसी की आकृति विज्ञा अर्पण ने “मिसरी ले मीठ बाटे, लईकनों से ढीठ बाटे,
मान दी त जान दी जवार भोजपुरिया।
नीमन गंभीर बा हमार भोजपुरिया,
होंही नाहीं कबहूं बेतार भोजपुरिया।”
इन्होंने बेटी पर सोहर गाया।
दिल्ली से आए संतोष पटेल जी ने “लौंडा नाच” पर आधारित एक कविता सुनाई।
“ना जाने होखे सबै,
लौंडा नाच के नचनिया के,
साटा के मुताबिक एक गांव से दूसरे गांव
पैदल-पैदल हाली-हाली चलत जात बाड़े।”
यह कविता पद्मश्री रामचंद्र माझी पर आधारित थी।
काव्यपाठ किया।
भोजपुरी काव्य संध्या का संचालन मनोज भावुक जी कर रहे थे ; वो कहते हैं “कविता पाठ द्विपक्षीय वार्ता बा, कविता मेडिटेशन बा।” धन्यवाद ज्ञापन प्रो. प्रभाकर सिंह ने किया।
इस दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के संरक्षक कला संकाय प्रमुख, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रो. माया शंकर पाण्डेय, समन्वयक, भोजपुरी अध्ययन केंद्र के प्रो. प्रभाकर सिंह, संयोजक डॉ. उर्वशी गहलौत, सह-संयोजक डॉ. विवेक सिंह एवं आयोजन सचिव प्रो. राजेश सरकार हैं।
प्रस्तुति : रोशनी उर्फ धीरा, शोध छात्रा, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय।
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