#Poetry: चला परिंदा घर की ओर | #NayaSaveraNetwork
नया सवेरा नेटवर्क
चला परिंदा घर की ओर
चला परिंदा घर की ओर, 
हरा भरा है मेरे घर का आंँगन, 
सुदूर भ्रमण कर आया , 
 नहीं दिखा मातृछाया जैसा कोई, 
जहांँ खुशियों का अंबार है, 
रिश्तो का लिहाज़ है , 
संस्कार दिया है हम सबको, 
भूल कोई ना हमसे हो, 
 कोई हवा छू न सके अभिमान को, 
 चला  परिंदा घर की ओर । 
माटी में जन्मे हैं  माटी के लाल हैं हम, 
माटी की मोल को समझे हम, 
सर्दी हो या गर्मी  तूफ़ान को झेले हैं हम , 
मातृभूमि से बढ़कर , 
इस जहांँ में  कोई दूसरा स्वर्ग नहीं, 
चला परिंदा घर की ओर । 
दादा - दादी  का प्यार हमें  बुलाता है पास, 
जब हम कभी मायूस होते, 
चाचा -  चाची , बुआ  , ताऊ - ताई दिलाते हमें उपहार , 
पिता की डॉट भी छुपा है प्यार , 
  सबसे दूर होने पर अपनेपन का एहसास , 
मुझे खूब रुलाते , 
चला परिंदा घर की ओर। 
पढ़ा लिखा  युवा , बेरोजगारी का मारा , 
ढूंँढता है कामकाज  , थका हारा ,
 लौटता है लगता औरों को बेचारा , 
 इसमें किस्मत का कोई दोष नहीं, 
चला परिंदा घर की ओर।
मांँ भारती के हम सपूत, हिम्मत न कभी हारेंगे , 
माटी का तिलक माथे पर लगा के , 
फावड़ा, कुदाल हाथों में लें निकलें हम खेतों में, 
अपना काम करने में कोई शर्म नहीं , 
मेहनत से बड़ा कोई अर्थ नहीं , 
चला परिंदा घर की ओर। 
(मौलिक रचना) 
चेतना प्रकाश चितेरी
प्रयागराज, उत्तर प्रदेश।
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