शीर्षक: बगीचा भी मेरा वीरान नहीं होता | #NayaSaveraNetwork
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शीर्षक: बगीचा भी मेरा वीरान नहीं होता
जीवन में अगर कोहराम नहीं होता,
ज़माने में मैं भी बदनाम नहीं होता।
आंधियां गर अपना रुख मोड़ा न होता,
बगीचा भी मेरा वीरान नहीं होता।
इश्क गर उनसे बेपनाह नहीं होता,
दर्द यूं ही मेरा सरेआम नहीं होता।
सर्द महफ़िल में तेरा आना न होता,
भरी महफ़िल में मैं बदनाम नहीं होता।
निगाहें उनकी गर मयस्सर न होती,
क़त्ल मेरे प्यार का सरेआम नहीं होता।
पलट कर तूने यूं मुझे देखा न होता,
हंसी वादियों में यूं तूफान नहीं होता।
अस्क तूने अगर यूं बहाया न होता,
शायद हमें भी तुमसे प्यार नहीं होता।
प्यार तुमने अगर यूं सिखाया न होता,
प्यार में फिर से कत्लेआम नहीं होता।
साहित्यकार एवं लेखक - आशीष मिश्र उर्वर
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