आशिक़ी! | #NayaSaveraNetwork
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आशिक़ी!
सुबह-शाम आँखें लड़ाने लगे हैं,
मेरे दिल पे देखो वो छाने लगे हैं।
उठती जवानी का हर कोई दीवाना,
सोई अंगन सुलगाने लगे हैं।
आई हूँ नजरों में मैं जब से उनके,
अपना ही घर वो भूलाने लगे हैं।
बार-बार दिल मेरा उनको ही चाहे,
ख्वाबों में भी आने-जाने लगे हैं।
नाजो-अदा मेरी भाती है उनको,
तलब आशिकी की बढ़ाने लगे हैं।
मुझे आदतन रूठने की बीमारी,
छाले वो पांव का दिखाने लगे हैं।
सलामत रहें उनकी साँसें जहां में,
मुझे टूटने से बचाने लगे हैं।
बड़ी चोट खाए थे मिलने से पहले,
मुझे अपनी ठोकर दिखाने लगे हैं।
पहचान मेरी वो एक दिन बनेंगे,
जुल्फों पे उँगली फिराने लगे हैं।
परदा हया का जो उठता नहीं था,
रफ़्ता-रफ्ता परदा उठाने लगे हैं।
रामकेश एम. यादव (लेखक), मुंबई।