हम अपनों से दूर हुए, कैसी है मेरी मज़बूरी | #NayaSaveraNetwork
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हम अपनों से दूर हुए, कैसी है मेरी मज़बूरी
हम अपनों से दूर हुए
कैसी है मेरी मज़बूरी?
जिस माँ ने जनम दिया
वह माँ आज है अकेली।
उसके प्यार के लिए
हम भाई
आपस में लड़ जाते थे,
हम दोनों को झगड़ते देख
मांँ कहती-
तुम दोनों मेरे राम लखन हो
संस्कार दिया है हमने
श्रवण कुमार बनकर
माता-पिता की सेवा करना,
हम अपनों से दूर हुए
कैसी है मेरी मज़बूरी?
पिता देखें मेरे आने की राह
कोई पूछे मेरे बारे में,
हंँसकर कह देते-
परिवार में है ख़ुशहाल
मुझे अब क्या चाहिए?
मेरे बच्चे सब खुश रहें
हमसे दूर होकर भी देते हैं दुआ
हम अपनों से दूर हुए
कैसी है मेरी मज़बूरी?
कहांँ गई मेरे घर की रौनक़?
चंद रुपयों के लिए
मैं सिमट कर रह गया
हम अपनों से दूर हुए
कैसी है मेरी मज़बूरी?
थका हुआ-सा जब घर आता
मंदिर में भगवान को न पाता हूँ
उदास मैं हो जाता
काश! मुझे भी! कोई समझ लेता
मैं क्या चाहता हूंँ?
छोड़ के मैं न आता, साथ उन्हें भी लाता
हम अपनों से दूर हुए
कैसी है मेरी मज़बूरी?
सोचता हूँ कभी-कभी
पति, पिता, दामाद
बनकर मै रह गया,
सबसे से नाता तोड़
कैसा रिश्ता जोड़ लिया?
सबके रहते हुए भी,
मैं अकेला रह गया
हम अपनों से दूर हुए
कैसी है मेरी मज़बूरी?
मौलिक रचना
चेतना प्रकाश चितेरी, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश
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