वे दिन भी क्या थे | #NayaSaveraNetwork

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मुझे आज भी वे दिन याद हैं जब गर्मी की छुट्टियों में मुंबई से मेरे बड़े ताऊ जी - ताई जी, पापा, भैया-भाभी महानगरी ट्रेन से गाँव आते थे। घर के सभी लोग बहुत ख़ुश होते थे। कि मई माह तक सभी लोग साथ में रहेंगे। 

1990 तक मेरे घर का पिछला हिस्सा मिट्टी और खपरैल से, आगे का ओसारा ईंट-सीमेंट से बना हुआ सुंदर लग रहा था। 

उत्तर मुखी घर का दिशा होने के कारण घर की बायीं तरफ़ एक नीम का पेड़ था। नीम के पेड़ के नीचे छोटा चबूतरा था जिस पर सुबह-शाम लोग बैठकर चाय पीते थे। पास में ही बहुत सुंदर पक्का बैठिका, उससे लगा हुआ आम का बग़ीचा जो बैठिका के पीछे तक फैला हुआ था। 

घर और बैठिका के सामने ख़ूब बड़ा-सा द्वार, घर के दाहिने ठंडी के मौसम में गाय, भैंस, बैल को रहने के लिए मिट्टी, लकड़ी, खपरैल से बना हुआ घर था। ठीक उसी के सामने बड़ी-सी चरनी थी जिसमें बड़े-बड़े हौदे थे। 

द्वार के बीचों-बीच विशाल पीपल का पेड़, उस पेड़ के नीचे गोलाकार में बड़ा-सा चबूतरा, और उस पर सुंदर शिव मंदिर है। इस मंदिर की पूजा मेरे दादाजी से लेकर आज तक घर के सभी सदस्य करते हैं। पीपल के चबूतरे की दस क़दम दूरी पर पुराना कुआँ था, जो १९९१ के आसपास सूख गया था, मेरे दूसरे नंबर के ताऊ जी ने सभी भाइयों एवं भतीजे के सहयोग से उस कुएँ का पुनर्निर्माण करवाया था। उस समय हम सभी लोगों ने पानी के महत्त्व को भली-भाँति जाना। 

बात तो मैं कर रही थी गर्मी की छुट्टियों की, यह मन भी कहाँ-कहाँ चला जाता है। दोपहर के समय हम सभी आम के बग़ीचे में जाते थे, पेड़ों के नीचे ख़ूब खेलते थे। मुझे आज भी वे खेल याद हैं जैसे; कबड्डी, सिल्लो पत्ती, चिब्भी, कौड़िया बुझावल जिसकी पंक्ति आज भी मुझे याद है—सुमन पारी धीरे से आना शोर न मचाना, पीछे मुड़के ताली बजाना; यह खेल मुझे बहुत पसंद था। 

उसी आम के बग़ीचे में बड़े-बड़े पलंग बिछे रहते थे, तो कुछ पलंग पीपल के पेड़ के नीचे। सब अपने उम्र वालों के साथ हँसी ठहाका लगाते थे, लू चलती थी, फिर भी हमें कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता था। जहाँ धूप आती थी, वहाँ से चारपाई खिसका कर छाँव में कर लेते थे। 

जब किसी को प्यास लगती थी तो घर का कोई बड़ा व्यक्ति कुएँ से पीतल के गगरा में पानी निकाल लाता था, तो घर की बेटी बड़ी माई से मूँज की बनी डलिया में गुड़ माँग लाती थी। 

सबकी खाने की रुचि अलग-अलग थी, कोई कच्चा आम नमक के साथ, तो कोई सत्तू, कोई लाई चना खाता, तो कोई आम भूनकर पन्ना बना लाता, तो कोई बेल शरबत क्या! सब में प्यार था। 

धीरे-धीरे छुट्टियाँ समाप्त होने लगतीं थी, तो परदेसियों के बैग को घर की महिलाएँ भरना शुरू कर देती थीं जैसे; आम, कटहल का अचार, अरहर की दाल, अलसी का लड्डू, भुना चना, सत्तू आदि। 

एक महीना हँसी-ख़ुशी कैसे बीत जाता था समय का पता ही नहीं चलता था। 

मुंबई में 13 जून से स्कूल खुल जाते हैं! 

आज भी! मुझे वे दिन याद हैं। जब मेरे पापा, ताई-ताऊजी, भैया-भाभी मुंबई जाते थे तो घर के सदस्यों में से बहुएँ, मँझली अम्मा, मम्मी को छोड़कर सभी लोग सड़क तक बैग, अटैची, बॉक्स लेकर जाते थे और बस का इंतज़ार करते थे, कितना प्रेम था! बीस मिनट आधे घंटे बाद रोडवेज़ बस भी आ जाती थी, तो इतने में पापा, बड़े पापा, भाभी-भैया अपने से बड़ों का चरण स्पर्श करते थें तो हम सभी छोटे बच्चे भी उनका चरण स्पर्श करते थे। हम लोगों को चॉकलेट खाने का पैसा  मिलता था।

हमारे घर से डेढ़ घंटे का सफ़र था, इसलिए मेरे घर के लोग बनारस ही उतरते थे और बनारस से ही मुंबई के लिए ट्रेन पकड़ते थे। 

परदेसियों का जाने से एक ओर मन दुखी रहता था तो दूसरी ओर हम भाई-बहन एक दूसरे से पूछते थे—तुमको पापा ने कितना पैसा दिया, हमको ताई जी ने इतना दिया। हम लोग हाथ में पैसे लिए सीधे गाँव की छोटी दुकान पर चले जाते थे। हम सब भाई-बहन अपनी पसंद का चॉकलेट लेते थे, एक दूसरे को खिलाते थे और उनका भी खाते थे, आपस में बात करते हुए घर आते थे और हम सभी को इंतज़ार रहता था गर्मी की छुट्टियों का। 

आज भी! वे दिन याद है मुझे! 

हमेशा याद रहेंगे, 

जो ख़ुशी के पल बिताए हैं हम अपनों के साथ, 

चेतना ने जिया है उन पलों को 

आज के युग में

धनी व्यक्ति वही है जिसके पास परिवार है, 

माता-पिता का आशीर्वाद साथ है, 

भाई का प्यार है, बहन का दुलार, 

ज़िन्दगी ना मिलेगी फिर दोबारा, 

मैं जब भी किसी को याद करती हूँ, तो उसकी अच्छाइयों के साथ और उसे याद करके कुछ पल के लिए मैं अतीत में खो जाती हूँ। मन ही मन कह उठती हूँ, “वे भी क्या दिन थे! वे दिन भी क्या थे!”

(स्वरचित) 

चेतना प्रकाश चितेरी, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश। 


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