नया सवेरा नेटवर्क
जौनपुर। मकर संक्रांति पर लाई, चिउड़ा, गुड़, तिलकुट की चर्चा गांव और शहरी क्षेत्रों में धूम मचाये हुए हैं। कुछ लोगों ने इन्हें घर में ही बनाया और कुछ लोगों ने बाजार से खरीदा। रविवार को मकर संक्रांति के त्यौहार के दिन जब व्यंजनों को खाने की बात आई तो भूली बिसरी कुरु ई (मऊनी) की याद ताजा हो गई। प्लास्टिक, स्टील और एल्युमिनियम के बर्तनों के बीच लगभग विलुप्त प्राय हो चुके हस्तशिल्प के इस नायाब नमूने के भूत भविष्य पर विचार लाजिमी हो जाता है। जब प्लास्टिक की टोकरी और स्टील की प्लेट और चम्मच का बोलबाला नहीं था उन दिनों ग्रामीण महिलाओं द्वारा सरपत के सरकंडे के छिलके की पतली -पतली पट्टियों में चीरकर बल्ला बनाकर उन्हें अलग - अलग रंगों में रंग कर सूखे कुश का रोलर बनाकर उसे टिकुरी (सूजे) से छेद कर रंग बिरंगी छोटी -बड़ी आकार की कुरु ई बनाई जाती थीं जिसका प्रयोग मकर संक्रांति के दिन पास -पड़ोस में लाई, चिउड़ा, ढूंढ़ी और तिलकुट आदि पहुंचाने के काम में किया जाता था और सब लोग इसी में रखकर लाई और चिउड़ा चबाते थे। शादी होने पर दुल्हनें भी ससुराल में अपने से बनाई कुरु ई साथ लेकर आती थी जो उनके गुणवान होने का प्रमाण पत्र होता था लेकिन ये सब लगभग अतीत काल की बातें हो गई। हस्तशिल्प के इस नायाब नमूने को पुनर्जीवित करने से लोगों को विशेषकर ग्रामीण महिलाओं को रोजगार तो मिल सकता है किन्तु जब तक इनके प्रचलन को बढ़ावा न मिले तो इनकी मांग और बाजार को पुनर्जीवित करना सम्भव नहीं है। ऐसा करने के लिए कुरु ई को हीन भावना की दृष्टि से उबारना होगा जिसके लिए तथाकथित सभ्य समाज को अपनी परम्परागत हस्तशिल्प को प्रमोट करना होगा। रही बात आज के दौर में इसके औचित्य को बनाय रखने की तो हम देखते हैं कि विगत दशकों में हमने बहुत सारी चीजों का प्रयोग मात्र इसलिए करना शुरू कर लिया है कि वह फ़ैशन में है। इस सम्बन्ध में विकास खंड मछलीशहर की ग्राम पंचायत बामी के प्रेमचंद प्रजापति कहते हैं कि यद्यपि सरकार ने मूंज के बने उत्पादों को वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट (ओडीओपी) में शामिल कर लिया है लेकिन सरपत के बल्ले से बने मूंज के सामानों को सम्मान देते हुए चलन में शामिल करना होगा तभी कुरु ई या मऊनी की मांग बाजार में पैदा होगी।
|
विज्ञापन |
|
विज्ञापन |
|
विज्ञापन
|
0 टिप्पणियाँ