"संवाद! अपने समय से"- | #NayaSaveraNetwork
नया सवेरा नेटवर्क
इक सही दास्तां कलम लिखती रही
है सघन कोहरा धूप दिखती नहीं।
क्यों कटें और काटें समय में समय को
क्या समय है ये इक आस टिकती नहीं।
आज पशुता प्रबल हमको बतला रही
है मनुजता कहां से कहां जा रही।
हैं भिंची मुट्ठियां,आग की ढेरियां
है बजाता समय अपनी रणभेरियां।
लूट,हत्या , फरेबी और पाखंड की
हैं क़दम -दर-कदम दिख रही झलकियां
न रचो कालिमा न बनो कालिमा
सूर्य सा तुम बनों,बिखेर दो रश्मियां।
स्वरचित (मौलिक)
डॉ मधु पाठक
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poetry