भाषा जो हम बोलते हैं | #NayaSaberaNetwork
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भाषा जो हम सोचते हैं
भाषा जो हम बोलते हैं
भाषा जो हम लिखते हैं
हम उसमें दिखते हैं।
दिखते ही हैं कमोबेश
हम उसमें, वह व्यक्त करती
हैं हमें ही चाहे-अनचाहे।
भाषा केवल ध्वनि-पुंज
नहीं है, भाव है भाषा
जो कई-कई बार आंखों
से चुपचाप बयां होकर
चेहरे पर फैल जाती है
और प्रकट कर देती है
मन की मिठास सहज
सुघड़ मुस्कान के रूप में,
या कि एक असहज
काइयांपन और टुच्चापन
प्रकट कर आंखों से
बिखेर कर, उड़ेल कर
चेहरे पर, अपनी शक्ति
साबित कर देती है भाषा।
बोले-बिनबोले भी हमें ही
अभिव्यक्त करती है भाषा।
भाषा जो हम सोचते हैं
भाषा जो हम बोलते हैं
भाषा जो हम लिखते हैं
हम उसमें दिखते हैं।
नदी, झील, झरनों, पेड़
पौधों की भाषा।
अथाह सागर, अनन्त
आकाश की भाषा।
पक्षियों की, पशुओं या
पिशाचों की भाषा।
हम, इनमें से किसे चुनते हैं
यह कमोबेश हम पर निर्भर है।
पर बात वही कि भाषा हम जो
सोचते हैं, हम जो गढ़ते हैं,
हम जो बुनते हैं, हम जो बोलते
हैं, हम जो लिखते हैं,
हम उसमें कमोबेश दिखते हैं,
दिखते ही हैं।
स्वरचित (मौलिक)
डॉ. मधु पाठक
राजा श्रीकृष्ण दत्त स्नातकोत्तर
महाविद्यालय, जौनपुर, यू.पी.
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