माँ! | #NayaSaberaNetwork
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माँ!
दिनभर सैर - सपाटा करना अच्छा लगता है,
माँ को एक गिलास पानी देना भारी लगता है।
पैरों पे चलना, संभलना,दौड़ना, सिखलाया जिसने,
अब उसकी उंगली पकड़कर चलना भारी लगता है।
खुद भूखी रहकर कभी, भूखा हमें सुलाया नहीं ,
उसे दो वक्त की रोटी खिलाना अब भारी लगता है।
निचोड़ दी जवानी जिसने हमें सजाने -संवारने में,
अब दूध का कर्ज उतारना भारी लगता है।
बड़े फक्र से चट्टान- सा हौसला बनाया मेरा,
उससे मिलना अब गैर-वाजिब लगता है।
बीमार होने पर गिरवी रख देती थी गहना,
उसे एक पुड़िया दवा लाना अब भारी लगता है।
विदेशी कारों में बीवी को घूमना अच्छा लगता है,
माँ का दिल बहलाना अब भारी लगता है।
कहाँ गुम हो गए हमारे संस्कार हमारे घर की गलियों से,
अब पश्चिमी सभ्यता का हाय - बाय अच्छा लगता है।
फेर देती है जब माँ अपने हाथों को इस सिर पर,
दिल्ली का सिंहासन भी छोटा लगता है।
हमें लौटना होगा फिर से अपनी सभ्यता पर दोस्तों!
सर पे हो माता-पिता की दुआ तो जीना अच्छा लगता है।
रामकेश यादव (कवि,साहित्यकार), मुंबई
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