तपन देख रहे हैं! | #NayaSaberaNetwork
नया सबेरा नेटवर्क
दिन में आजकल सपन देख रहे हैं,
सपन में हम वतन देख रहे हैं।
बुझी नहीं हमारी अभी चिंगारियां,
हर सांस में हम चमन देख रहे हैं।
मत छीन गगन तू उस बुलबुल से
हम उसकी उलझन देख रहे हैं।
आँख में है अश्क़ औ लबों पे हँसी,
उसकी सुराही-सी गर्दन देख रहे हैं।
दिन में पकड़ते किरन,रात में जुगुनू,
आजकल उसकी लगन देख रहे हैं।
रंग इतने घुल चुके हैं हवाओं में अब,
जगह-जगह उसकी छुवन देख रहे हैं।
मीठी-सी कसक तो उठती है मन में,
गृहस्थी का उसमें भवन देख रहे हैं।
आधा है आग वो औ आधा है पानी,
रस भरी घटा की तपन देख रहे हैं।
अब पहले जैसी रही न आशिकी,
धंधे का उसमें चलन देख रहे हैं।
पश्चिमी हवाओं का पड़ा है असर,
कम कपड़ेवाला बदन देख रहे हैं।
जिस्म की आनुपातिक सुडौलता का,
वो लिबासी चलन देख रहे हैं।
खो रही धड़कनें चलते राहगीरों की,
उन धड़कनों की तपन देख रहे हैं।
मोहब्बत में खाये हैं जो चोट दिल पे,
टूटे उन ख्वाबों की चुभन देख रहे हैं।
छुपाई है दुपट्टे में वो जाम भरी आँखें,
फजा में सदी की थकन देख रहे हैं।
रामकेश एम.यादव(कवि, साहित्यकार), मुंबई
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