विकास युग में अपना अस्तित्व खो रहे बैलगाड़ी | #NayaSaberaNetwork
हाजी जियाउद्दीन
जौनपुर। कुछ साल पहले तक बैलगाड़ी, खेतों की जुताई, मिट्टी ढुलाई का साधन होने के साथ-साथ घरेलू कामकाज जैसे दुल्हन की विदाई कराने का भी साधन हुआ करती थी लेकिन विकास के दौर में इन दिनों विभिन्न उद्देश्यों के लिए प्रयोग किए जाने वाले बैलों का अस्तित्व ख़त्म हो रहा है। कभी किसानों का गौरव समझे जाने वाले बैलों का प्रयोग बैलगाड़ियों में तो कभी खेतों की जुताई के लिये होता था। कुछ वर्ष पूर्व ग्रामीण अंचलों के कुछ परिवारों में रिश्ता भी बैल और द्वार पर जुताई के लिये लटक रहे हल व जूवाठ और गोशाला को देख कर तय होता था।
खेती किसानी के महत्व समझते हुए चुनाव आयोग द्वारा चुनाव के अवसर पर बैलों की जोड़ी और अन्य प्रतीकों का निशान प्रत्याशी को एलाट किया जाता था। बैलों से किसान खेतों की जुताई करता था तो वहीं खाली समय में बैलों का प्रयोग बैलगाड़ी के लिये भी किया जाता था जिससे मिट्टी ढुलाई, खाद, बीज, आदि के साथ-साथ बारात की वापसी पर दुल्हन लाने के अतिरिक्त कुछ किसान गांव से भूसा ख़रीद कर मंडियों में बेचकर उससे अपना जीवन यापन करते थे।
सायं होते ही मण्डिया बैलों और गाड़ी वालों से सज जाया करती थी तो वहीं बैलों की खूबसूरती दिखाई देने के लिये विभिन्न प्रकार की घन्टी व अन्य वस्तुओं से सजाकर रखने के अतरिक्त किसानों के द्वारा कहीं स्वयं तो कहीं नौकरों के द्वारा ख़ूब सेवा की जाती थी लेकिन महंगाई की मार ने किसानों की शान समझे जाने वाले बैलों को अतीत का हिस्सा बना दिया।
थाना खेतासराय क्षेत्र के जमदहां गांव के 75 वर्षीय निवासी शरफ़ुद्दीन ने अतीत को याद करते हए कहा कि होश संभालते ही बैलगाड़ी चलाने और खेती करने के कार्य में लग गया था। उन्होंने बताया कि बैलगाड़ी तीन प्रकार की होती थी एक बैल, दो बैल और तीन बैल की बैलगाड़ियाँ हुआ करती थी पहले बैलगाड़ी की पहिया लकड़ी का होता था जिससे बैलगाड़ी को और गाड़ी वान को काफी समस्या होती थी लेकिन बाद में विकास हुआ तो बैल गाड़ी में टायर, ट्यूब का उपयोग होने लगा उस समय खेती करना और बैलगाड़ी चलाना ही आजीविका का स्रोत होता था। बैलगाड़ी से खेती के अतरिक्त ईंट भट्ठा पर ईंट ढोने, मिट्टी ढोने के अतरिक्त गाँव से भूसा आदि खरीद कर मंडी में ले जाकर बेचा जाता था लेकिन समय बीतने के साथ बैलगाड़ी के बजाय अन्य साधनों का प्रयोग होने लगा जिससे बैलगाड़ी चालकों के समक्ष बैलों का खर्चा पूरा करना मुश्किल हो गया है।
शरफ़ुद्दीन के मुताबिक़ महंगाई के दौर में भी किसानी नुकसान का सौदा नहीं है। ये बात सच है कि बैलों के द्वारा की गई जुताई अच्छी होती है लेकिन इसमें लागत अधिक होती है जिससे लोगों ने बैलों को पालने से मुंह मोड़ लिया है। बैलगाड़ी ले जा रहे जमदहां गांव के हसीबुद्दीन का कहना है कि खेती और अन्य कार्यों के लिए बैलगाड़ी का उपयोग करता हूं। उसके बाद ख़ाली होकर टेम्पू चलाकर अपना जीवन यापन करता हूं। अब बैलगाड़ी की जगह लोग अन्य वाहनों का उपयोग करते हैं।
वहीं मानी खुर्द गाँव के रहने वाले 70 वर्षीय नियाज़ अहमद ने बताया कि 6 बीघा की खेती को अपने बैलों से जुताई करने के अलावा अपने हाथों द्वारा भी जुताई का कार्य करता हूं। उनका कहना है कि बैलों से जुताई करना आज भी लाभदायक है। कई दशकों तक बैलगाड़ी चलाने के अपने अनुभव के बारे में बताते हुए कहा कि गाँव से भूसा खरीदने के बाद बैलगाड़ी में लादकर के 25 किलोमीटर शहर जौनपुर तक पहुँचने में 10-12 घंटे लगते थे और मंडी पहुँच कर रात्रि को विश्राम करते थे सुबह होने पर ख़रीदार पहुंचते तो सौदा तय होने पर उनके घर तक भूसा पहुंचाना पड़ता था। दूसरे दिन हम लोग अपने घर पहुंचते थे पशुओं आदि का ख़र्च निकालने के बाद हमारी जेब में भी पैसे आ जाते थे। इसके अलावा दहाइयों पूर्व बैलगाड़ी का प्रयोग अन्य कार्यों के अलावा बरात के लिए भी उपयोग किया जाता था। इतना ही नहीं दुल्हन की विदाई के समय बैलगाड़ी पर पर्दा डाला जाता था और दुल्हन की विदाई होती थी।
उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में एक जोड़ी बैल पांच किलो चुनी और 10 किलो भूसा खा जाता है जिसकी लागत लगभग 500 रुपया प्रतिदिन होता है। अगर प्रतिदिन कार्य मिलता तो घाटे का सौदा नहीं है। विकास के इस युग में बैलगाड़ी और खेतों में बैलों की जुताई अपना अस्तित्व खो रहे हैं। मुझे लगता है कि आने वाली पीढियां बैलों से खेती करने और आवश्यकता पूरा करने को अचरज मानेगी।
No comments