"लोक व जनजातीय कला पर विशेष कार्यशाला 26 सितंबर से" | #NayaSaberaNetwork
- सबसे पहले बिहार की प्रसिद्ध मधुबनी चित्रकला से होगी शुरुआत
नया सबेरा नेटवर्क
डिजिटल डेस्क। भारत के हर प्रदेश में कला की अपनी एक विशेष शैली और पद्धति है जिसे लोक कला के नाम से जाना जाता है। लोककला के अलावा भी परम्परागत कला का एक अन्य रूप है जो अलग-अलग जनजातियों और देहात के लोगों में प्रचलित है। इसे जनजातीय कला के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
यह लोक कला कहानी किस्से सुनाने की विस्मृत कला से जुड़ी है। भारत के हर प्रदेश मे चित्रों का प्रयोग किसी बात की अभिव्यक्ति दृश्य चित्रण के माध्यम से करने के लिए किया जाता है । लोक कला आम आदमी से सम्बंधित कला है। लोककला की शास्त्रीयता को संरक्षित करने की नितांत आवश्यक है।
भारत की अनेक जातियों व जनजातियों में पीढी दर पीढी चली आ रही पारंपरिक कलाओं को लोककला कहते हैं। इनमें से कुछ आधुनिक काल में भी बहुत लोकप्रिय हैं जैसे मधुबनी और कुछ लगभग मृतप्राय जैसे जादोपटिया। भारत मे मधुबनी,कोहबर, कलमकारी, कांगड़ा, गोंड, चित्तर, तंजावुर, थंगक, पटचित्र, पिछवई, पिथोरा चित्रकला, फड़, बाटिक, मधुबनी, यमुनाघाट तथा वरली, कालीघाट, राजस्थानी लघु चित्र आदि भारत की प्रमुख लोक कलाएँ हैं।
भूपेंद्र कुमार अस्थाना उक्त जानकारी देते हुए कहा कि इन लोक व जनजातीय कलाओं व कलाकारों को अवश्य प्रोत्साहित करना चाहिए। यह भारत की सांस्कृतिक विरासत है। इन्हें सहेजना ,सवारना बहुत जरूरी है। इसी कड़ी में अस्थाना आर्ट फोरम ने अपने क्रिएटिव वर्चुअल प्लेटफॉर्म पर अपनी अगली श्रृंखला में लोक व जनजातीय कलाओं के ऑनलाइन कार्यशाला आरम्भ करने जा रही है। इस श्रृंखला की पहली कार्यशाला का शुभारंभ दो दिवसीय 26 व 27 सितंबर 2020 को बिहार की प्रसिद्ध मधुबनी चित्रकला से किया जाएगा। इस कार्यशाला में विशेषज्ञ के रूप में मधुबनी की ही रहने वाली महिला कलाकार प्रीति दास होंगी। जो प्रतिभागियों को मधुबनी चित्रकला के हर एक कलात्मक बारीकियों, और हर एक पहलू पर चर्चा और स्वयं मधुबनी कलाकृतियों की रचना करेंगी।
मधुबनी चित्रकला को मिथिला चित्रकला भी कहा जाता है जो पारंपरिक रूप से बिहार के मिथिला क्षेत्र में विभिन्न समुदायों की महिलाओं द्वारा निर्मित की जाती है। इन चित्रों को विशेष अवसरों, त्योहारों, धार्मिक अनुष्ठानों आदि सहित आनुष्ठानिक सामग्री के प्रतिनिधित्व के लिए जाना जाता है।कागज और कैनवास पर चित्रकला का अभी हाल ही में जो विकास हुआ वह मुख्य रूप से मधुबनी के आस-पास के गांवों में हुआ।धीरे-धीरे इस लोक कला ने अनेक कला पारखियों को आकर्षित किया और अब वह वैश्वीकृत कला का रूप बन गई है। पारंपरिक रूप से इस पेंट को कई टूल्स के साथ किया जाता है जैसे अँगुलियों, टहनियाँ, ब्रश, निब-पेन और मैचस्टिक्स। प्राकृतिक रंगों और रंगद्रव्य को रंगने के लिए उपयोग किया जाता है। इस पर ध्यान देने योग्य ज्यामितीय नमूने दिखाई देत हैं।
मधुबनी पेंटिंग खास तरह की कला है। दरअसल मिथिला क्षेत्र में इस पेंटिंग की शैली की उत्पत्ति की वजह से इसे मिथिला पेंटिंग के नाम से भी जाना जाता है। इस पेंटिगशैली का इस्तेमाल आज भी महिलाएं अपने घरों और दरवाजों को सजाने के लिए किया करती हैं। किंविदंती के अनुसार इस कला की उत्पत्ति रामायण काल में हुई थी। मधुबनी पेंटिंग प्रकृति और पौराणिक कथाओं की तस्वीरें उकेड़ी जातीं हैं। इन चित्रों में कमल के फूल, बांस, चिड़िया, सांप आदि कलाकृतियाँ भी पाई जाती हैं। इन पेंटिंग को झोपड़ियों की दीवार पर किया जाता था, लेकिन अब यह कपड़े, हाथ से बने कागज और कैनवास पर भी की जाने लगी हैं। मधुबनी पेंटिंग दो तरह की होतीं हैं- भित्ति चित्र और अरिपन।
इस कार्यशाला के माध्यम से हम कला की अमर सुंदरता को इस जीवंत और पारंपरिक मधुबनी कला के सृजन के लिए सराहना करते हैं। मधुबनी चित्रकला लोक संस्कृति का अंग है। जो ग्रामीण जीवन के सहज जीवन को प्रदर्शित करती है।
क्यूरेटर भूपेंद्र अस्थाना ने बताया कि सभी लोक कलाओं का ऑनलाइन वर्कशॉप किया जाएगा। जिस प्रदेश की जो कला होगी विशेषज्ञ कलाकार भी उसी प्रदेश के होंगे ताकि उस कला की विस्तृत जानकारी दे सकें।
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